पटाचारा
लेखकः
विजय सिंह कुशवाहा
पताः
मकान नं० १०९ब, दूसरी मंजिल
ब्लॉक–यस, पाँडव नगर,
राज्यः दिल्ली
पिन कोडः ११००९२
ई–मेलः contact@newagecreation.in
प्रस्तावना
जब हम पाली साहित्य और इतिहास को पढ़ते है तो बुद्ध और उनके शिष्यों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में संक्षिप्त रूप में पढ़ते हैं। ऐसा होना स्वभाविक भी है। बुद्ध की शिक्षा में व्यक्तिगत महत्ता की जगह धम्म की प्रधानता है। क्योंकि धम्म सार्वभौमिक, सार्वजनीक और सर्वकालिक है। यह व्यक्तिगत नहीं हो सकता। यह इतना व्यापक और असीम है कि इसे किसी व्यक्ति तक सीमीत नहीं किया जा सकता। फिर भी व्यक्ति में मन में यह जिज्ञासा जानने की जरूर रहती है, और ऐसा होना भी चाहिए। क्योंकि हम मनुष्य है। जानना और सोच-विचार करना हमारा नैसर्गिक स्वभाव है।
तथागत गौतम बुद्ध का प्रारंभिक जीवन के बारें में विश्व के सभी देशों के लोग कुछ न कुछ जानते है। बुद्ध प्रमुख शिष्यों में सारीपुत्त, मौगलाना और आनंद आदि का नाम आसानी से मिलता है। उपासकों में प्रमुख नाम अनाथपिण्डक और विसाखा का नाम भी मिलता है। इनके अतिरिक्त बुद्ध के कई और प्रमुख शिष्य और उपासक थे। जैसे- उपाली, पटाचारा, सुजाता, आम्रपाली और किसा गौतमी आदि।
तथागत बुद्ध के बाद, धम्म के प्रमुख संरक्षको और प्रचारकों में सम्राट असोक, नागार्जुन, बाबा साहेब अंबेडकर का नाम प्रमुख है। वैसे तो ये सारी जानकारी पाली साहित्य की गाथाओं और इतिहास में दर्ज है। पर, पाली साहित्य और इतिहास इतना व्यापक और विस्तृत है कि इसको आसानी से नहीं पढ़ा जा सकता। दूसरा प्रमुख कारण भारत में सम्यक इतिहास के बारे में कम पढ़ाया जाना है। इस पुस्तक का लिखने का मुख्य उद्देश्य बुद्ध के शिष्यों, उपासकों, प्रचारकों और संरक्षकों के जीवन के बारे में संक्षिप्त जानकारी देना है। साथ ही उनका धम्म में योगदान, समर्पण और त्याग पर एक नजर डालना है। इन सबका जीवन हम सब के लिए प्रेरणा का स्रोत हो सकता है।
इस पुस्तक में एक चैप्टर गुरूगोबिन्द जी के बारें में संछिप्त परिचय लिखा है। उनका मेरी जीवन में बहुत बड़ा प्रभाव है। इसके अलावा धम्म का उद्देश्य के बारे में पूज्यनीय गोयका जी का भाषण लिखा है। एक चैप्टर शुभ-अशुभ ने नाम पर लिखा है।
मैंने इस पुस्तक का संकलन बहुत से स्रोतों से प्राप्त कर लिखा है। इस पुस्तक में बुद्ध के प्रमुख उपासकों, प्रचारकों और संरक्षकों के जीवन के बारें में लिखा गया है। इस पुस्तक में बहुत से नाम पाली में लिखा है। साथ ही लिखते समय कई जगह वाक्यों को पाली भाषा के अनुरूप लिखा है। मेरा विश्वास है कि इसे पढ़कर आपको ज्ञान और प्रेरणा मिलेगी।
धन्यवाद
शिर्षक सूचि
क्रम संख्या पृष्ठ क्रमांक
१.आनंद
२.असोक
३.बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर
४.धर्म का उद्देश्य
५.पटाचारा
६.विसाखा
७.अंगुलिमाल
८.किसा गौतमी
९.पराकृति
१०.आम्रपाली
११.उपाली
१२.सारीपुत्र
१३.शुभ–अशुभ
१४.गुरु गोबिंद सिंह
आनंद
आनंद का जन्म कपिलवस्तु में हुआ था। वह बुद्ध के चाचा का लड़का था। उसके पिता का नाम अमितोदाना था। वह बुद्ध का परिचारक(परसनल अटैन्डैन्ट) था। परिचारक होने के कारण वह लोगों के संदेश बुद्ध तक उसके द्वारा पहुँचता था। बुद्ध के कपड़े धोने, उनके कमरे की साफ–सफाई करने का काम आनंद ही करता था।
धम्म प्रचार में प्रारंभिक २० वर्ष तक बुद्ध के कई परिचारक हुए। जैसे– नागासामला, उपावना, नागिता, कुण्डा, राधा आदि, पर कोई भी उपयुक्त साबित नहीं हुआ। जैसे-जैसे बुद्ध की आयु बढ़ती जा रही थी, संघ का काम भी बढ़ते जा रहा था। बुद्ध चाहते थे कि उनका कोई योग्य सेवक हो। एक बार उन्होंने सारे भिक्क्षुओं को बुलाया और पुछा, “तुम लोगों में से जो कोई मेरा परिचारक बनना चाहता है, वह अपना हाथ उपर करे?” उस समय आनंद को छोड़कर सभी ने अपनी सेवा देने के लिए प्रस्ताव रखा। बुद्ध ने आनंद से पूछा, “तुमने अपनी सेवा देने के लिए क्यों नहीं प्रस्तुत किया?” इस पर आनंद बोला, “आप यह अच्छी तरह से जानते हैं कि आप का सबसे अच्छा परिचारक कौन हो सकता है। जहाँ तक मेरी बात है, मैं आपका परिचारक बनने के लिए तैयार हूँ। पर मेरी कुछ शर्ते हैं। ये शर्ते हैं–
१– जो कुछ दान बुद्ध को मिलेगा जैसे– कपड़ा, भोजन आदि, उसे वह आनंद को नहीं देगे। क्योंकि, ऐसा करने से उसकी यह आलोचना होगी कि उसने यह पद अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए लिया है
२– वह बुद्ध की तरफ से कोई भी निमंत्रण स्वीकार कर सकता है। या लोगों की बात बुद्ध तक पहुँचा सकता है।
३– बुद्ध जब भी कोई उसकी अनुपस्तिथि में जो भी उपदेश दे, वह उपदेश ठीक वैसे ही उसे बताएगें।
४– उसे धर्म और उसके सिद्धांतो के प्रति कोई भी प्रश्न पूछने की अनुमति देगें।
उपरोक्त शर्तो को बुद्ध ने सहज स्वीकार कर लिया। इस तरह वह बुद्ध का परिचारक बन गया।
आनंद का संघ में प्रवेश उस समय होता है जब ज्ञान प्राप्ति के बाद बुद्ध पहली बार कपिलवस्तु आए थे। उसके साथ ही उनका भाई अनिरुद्ध और उसका चचेरा भाई देवदत्त भी शामिल हुआ। वह बहुत ही परिश्रमी और लगनशील था। एक साल की साधना में ही वह सोतापन्न हो गया। उसमें अपने से ज्यादा लोगों की सेवा की भावना ज्यादा थी। वह भिक्क्षु के जीवन से बहुत ही संतुष्ट था। परिचारक चुने जाने से पहले, उसके इस गुण पर किसी का ध्यान नहीं गया था। बहुत से लोग जो बुद्ध के साथ थे, वे अध्यन और साधना से अरहत बन गये थे, पर आनंद ने अपना सारा ध्यान लोगों की सेवा और देखभाल में लगा दिया।
बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने से पहले आनंद रोने लगा और बोला, “हे भगवन, अभी तो मैं इस धर्म में नया हूँ और मुझे बहुत कुछ अभी सीखना है। आपके महापरिनिर्वाण के बाद मेरा क्या होगा?” इस पर, बुद्ध ने कहा, “रो मत आनंद। क्या मैंने यह नहीं बताया है कि सभी जीचें अनित्य है। वे अनित्य और अलग हो जाने के नियमों के अधीन है। आनंद तुम मेरे साथ बहुत वर्षो से हो। मैंने जाना है कि तुमने सबकी करुणा और प्यार से सेवा की है। तुमने बहुत से पुन्य कमाया है, आनंद। बस थोड़ा सा और प्रयास करो, तुम्हें जल्दी ही बोधि की प्राप्ति होगी।”
आनंद का निस्वार्थ भाव तीन तरह से दिखता है।
१- उसने बुद्ध की निःस्वार्थ भाव से सेवा की।
२– वह धम्म भाईयों और आम जन के प्रति बहुत की दयालु था।
३– वह धर्म को भविष्य में आगे बढ़ाने में कामयाब हुआ।
बुद्ध के परिचारक के रुप में उसने बहुत सेवा की जिससे कि बुद्ध को ज्यादा से ज्यादा समय लोगों को धर्म सिखाने के लिए मिले। उसने बुद्ध के कपड़े धोये, उनके फटे हुए वस्त्रों को सिला। कमरे को भी साफ करता था। जब बुद्ध की कमर बात करते हुए या साधना करते हुए दु:खने लगती तो उनके कमर की मालिस करता था। जब बुद्ध धम्म देशना करते तो वह बुद्ध के पीछे हमेशा खड़ा होकर पंखा झलता था। वह बुद्ध के पास की सोता था ताकि कभी भी, किसी समय उसकी सेवा ली जा सके। जब बुद्ध मठ का चक्कर लगाने जाते थे तो वह उनके साथ हो लेता था। बुद्ध जिस किसी भिक्षु को बुलाना चाहते थे, उसे आनंद के द्वार बुलाते थे। वह बुद्ध के विश्राम या एकांत में रहने का समय जानता था। वह उस समय लोगों का उनसे अलग रखता था। आनंद का जीवन एक नौकर और सचिव दोनों का था। उसने पूरे परिश्रम और विश्वास के साथ बिना रुके, बिना थके, पूरा जीवन बुद्ध, धम्म और संघ की सेवा किया।
यद्यपि आनंद बुद्ध का परिचारक था, पर इसके अलावा वह हमेशा ही दूसरे लोगों की सेवा में हाजिर होता था। वह इतना प्रवीण और प्रखर विद्वान था कि बुद्ध के कहने पर वह धम्म देशना देता था। कभी–कभी बुद्ध किसी सूक्त को शुरु करते तो उसका पूर्ण आनंद करता था। जब कभी बुद्ध दोपहर में विश्राम कर रहे होते तो वह अपना समय बिमार लोगों से मिलने, उसने बात करने और उन्हें आशा और ढाँढस दिलाने में लगाता था। वह उनके लिए दवाईयां दिलाता।
एक बार आनंद ने देखा कि एक बहुत ही गरीब परिवार, अपने दो बच्चों के परवरिश में संघर्ष कर रहा है। बच्चों का भविष्य अँधेरे में था। वह बुद्ध के अनुमति से उन दोनों बच्चों के धम्म की दीक्षा दी।
भिक्षुणियों का जीवन संघ में आसान नहीं था। एक तरफ बहुत से भिक्षु जहाँ उसने बहुत दूर–दूर रहते कि कहीं वे काम–वासना के शिकार न हो जाय, वहीं आनंद उनकी हमेशा मदद करता। आनंद के कहने पर ही बुद्ध ने पहली बार भिक्षुणियों को संघ में शामिल किया। वह हर समय भिक्षुणियों और आम महिलाओं को धम्म देशना देने के लिए तैयार रहता था। वह अपनी दया भाव से उनको प्रोत्साहित करता था। आनंद की प्रशंसा में बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा है कि आनंद उन शिष्यों में अग्रणी है जिन्होंने धम्म सुना है।
आनंद की यादाश्त शक्ति बहुत ही तीक्ष्ण थी। धम्म की सुनी बात क्रमबद्ध तरीके से पूरी समझदारी से याद रखता था। वह बहुत ही उर्जावान व्यक्ति था। बुद्ध के समय लिखने की प्रथा बहुत कम थी या बहुत कम प्रयोग किया जाता था। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद कई सदियों तक ज्यादातर धम्म मौखिक रुप से ही प्रचारित किया गया। उस समय के भिक्षु सूक्तों को मौखिक रुप से याद कर लेते और गुरु–शिष्य परम्परा द्वारा अपने शिष्यों को सुनाते थे। जब वे धम्म देशना के लिए एक जगह से दूसरे जगह जाते तो वे अपने साथ कोई पुस्तक नहीं लेकर जाते थे या पुस्तक ले जाने की जरुरत नहीं होती थी।
यद्यपि आनंद के पास स्मरण शक्ति की विलक्षणता थी, पर बुद्ध के महापरिनिर्वाण तक बोधि की प्राप्ति नहीं हुई थी। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद, आनंद के पास काफी समय बचता था जिसका उपयोग उसने साधना में विशेष रुप से लगाया ताकि संगीति के प्रारम्भ होने से पहले बोधि का प्राप्त कर ले। वह अपने इस प्रयास में कामयाब हुआ और संगीति के पूर्व संध्या पर उसे बोधि की प्राप्ति हुई।
बुद्ध के परिनिर्वाण के कुछ साल बाद धम्म की पहली संगीति(धर्म संसद) राजगिर में बुलाई गयी। उस संगीति में बड़े–बड़े अरहत शामिल हुए। उसमे आनंद भी शामिल था। संगीति के दिन आनंद का बड़े उत्साह से स्वागत हुआ। उसने संगीति में हजारों सूक्तों को इन शब्दों के साथ सुनाया, “ऐसा ही मैने सुना है”। उसने अपने विशेष स्मरण शक्ति से धम्म के हजारों सूक्तों को संकलित करने में काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया। आनंद ने धम्म के सत्व को समझकर उसे उदारण के साथ बताया।
आनंद के धम्म के संकलन में महान योगदान के कारण उसे कभी–कभार धर्म भंण्डारक भी कहा जाता है। सबके साथ मैत्री, करुणा, प्रेम और सहयोग की भावना के कारण वह सबके द्वारा पसंद किये जाता था। एक बार आनंद की प्रशंसा करते हुए बुद्ध ने कहा था कि, “पूर्व में जितने भी बुद्ध हुए हैं, वे सभी आनंद की तरह ही धम्म परिचारक रहे है और भविष्य में भी ऐसे ही होगे। आनंद को यह सब कुछ पता है कि एक भिक्षु के लिए, एक भिक्षुणी के लिए, एक एक आम जन के लिए, एक राजा के लिए, एक मंत्री के लिए और दूसरे संप्रदाय के धर्म गुरुओं या उनके शिष्यों से मिलने का सही समय क्या है।”
आनंद के चार महत्वपूर्ण गुण थे– जब कोई भिक्षु उनसे मिलता तो वह खुश होता या जब वे उसे दूर से भी देख लेते तो बड़े खुश होते थे। जब वह धम्म की देशना करता, सभी खुश होते। जब समापन करता तो सभी दुःखी होते थे। ऐसी ही दशा भिक्षुणियों, और आम–जन की थी।
आनंद की परिनिर्वाण का सही समय नहीं ज्ञात है। परम्परा की मान्यता अनुसार वह अपनी पूर्ण आयु में परिनिर्वाण को प्राप्त किया। पाँचवी शताब्दी में जब चीनी यात्री फह्यान भारत में आया तो उसने अपने लेख में एक स्तूप को देखा जिसमे आनंद के हड्डियों की राख रखा होने का वर्णन मिलता है। भिक्षुणियों का उनके प्रति अपार श्रद्धा थी।
असोक
असोक का जन्म ३०४ ई० पू० भारत में हुआ था। वह मौर्य वंश का तीसरा बड़ा शासक था। उसके दादा का नाम चंद्रगुप्त मौर्य और पिता का नाम बिन्दुसार था। उसका शासन काल २७३ ई०पू० से लेकर २३२ ई०पू० तक है। भारतीय इतिहास में इससे बड़ा कोई सम्राट नहीं हुआ। उसका समाज्य पूरब वर्मा की सीमा से लेकर पश्चिम अफगानिस्तान और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में केरल और तमिलनाडु को छोड़कर सब जगह था। दक्षिण के ये दोनों राज्य इतने कमजोर थे कि उन पर वह आक्रमण नहीं करना चाहता था। यदि वह चाहता तो जब चाहे उनको अपने राज्य में मिला सकता था। पर, उसने ऐसा नहीं किया।
असोक धम्म की शिक्षा ग्रहण करने के बाद एक समय पाटलीपुत्र छोड़कर विराट नगर गया। वहाँ पर एकांत में विपस्सना किया। बुद्ध के कहे अनुसार उसने विपस्सना करके देखा। उसने यह पाया कि यह तुरंत फल देने वाला है। इसी जन्म में देने वाला है। उसने सोचा– यह फल हमारी प्रजा को मिले तो कितना अच्छा होता! उसके राज्य का हर एक व्यक्ति सुखी हो जाए। आपस में भाई–चारा हो, खुशहाली हो। इसलिए, उसने अपनी प्रजा को भी धर्म सिखाया। उसने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को धम्म के प्रचार के लिए सिंहल द्वीप(श्रीलंका) भेजा।
असोक के शासन काल में कला, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि का बहुत निमार्ण और विकास हुआ। उसकी राज्य की सीमाएं चारों तरफ से सुरक्षित थी। उसके राज्य में कभी कोई विद्रोह नहीं हुआ। उसने कई बड़े-बड़े शिक्षण संस्थान बनवाए। नयी सड़कों का निर्माण कराया। जगह–जगह अस्पताल बनवाए। उसने राजमार्ग के दोनों तरफ छायादार वृक्ष लगवाये तथा कुएं खुदवाए ताकि यात्रियों को यात्रा करते समय कोई तकलीफ न हों। जगह–जगह यात्रियों के ठहरने के लिए सराय बनाए। उसने पशु–पक्षियों के लिए भी अस्पताल बनवाए और जंगल की कटाई पर रोक लगाई।
उसके शासन काल में चारों तरफ सुख–शांति थी। विदेशों से बहुत अच्छे संबंध थे। उस समय हमारा व्यापार युरोप और एशिया के कई देशों से होता था। राजकोष भरा रहता था। आज के कई इतिहासकारों और अर्थशास्त्रियों के अनुसार, उसके शासन काल में भारत का कुल घेरलू सकल उत्पाद विश्व का एक तिहाई हुआ करता था। यह सब उसके बुद्ध के बताए हुए धम्म के अनुसार शासन करके ही संभव हुआ। जब उसे धर्म का बोध हुआ, तो उसने पहला शिलालेख विराट नगर में लिखवाया। फिर उसके मन यह बात जागी कि ऐसे–ऐस शिलालेख जगह–जगह होने चाहिए। राजा के क्या धर्म है? उसने अपने लाट पर लिखवाया, “प्रजा उसकी संतान है। अपनी संतान की रक्षा करनी चाहिए। एक संप्रदाय का दूसरे संप्रदाय से झगड़ा न हो, बल्कि प्यार ही प्यार हो।”
भारत का यह दुर्भाग्य है कि इस देश के ही लोग, इस महान राजा को भुला दिया। उसने प्रजा के कल्याण के लिए धर्म के अमात्य नियुक्त करता था ताकि धर्म की शिक्षा अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे। एक शिलालेख में वह कहता है, “मुझसे पहले बहुत राजा हुए और जैसा कि एक अच्छा राजा चाहता है कि उसकी प्रजा में आपस में प्यार हो। बड़ों के प्रति सम्मान हो, छोटों के प्रति स्नेह हो। यह सब राजा चाहते थे। पर, कोई सफल नहीं हुआ। केवल मैं सफल हुआ।” उसने आदेश दे रखा था कि उसके राज्य का कोई भी नागरीक न्याय के लिए उससे कभी भी मिल सकता है। चाहे वह विश्राम कर रहा है। या चाहे वह अंतःपुर में हो। उसने जगह–जगह धर्म के अमात्य नियुक्त किया। एक नहीं उसने सैकड़ों अमात्य नियुक्त किया। उसने केवल अपने सामराज्य में ही नहीं, बल्कि अन्य देशों में भी उसने यह शिक्षा फैलायी ताकि अधिक से अधिक लोग अपना कल्याण साध ले। लोगों को सक्षम और विवेकशील बनना ही धर्म का मूल्य उद्देश्य है। अज्ञानता ही समस्त दुःखों की जननी है। अज्ञान में ही लोग आपस में बिना वजह लड़ते-झगड़ते हैं।
असोक ने धर्म की शिक्षा का प्रचार-प्रसार पूरे भारत के अलावा कई देशों में करवाया। अगर उसने बुद्ध की शिक्षा भारत से बाहर अन्य देशों में नहीं भेजी होता तो शायद हमें यह शिक्षा दुबारा प्राप्त करने का सौभाग्य नहीं होता। जब हम असोक के बारें में पढ़ते है तो भारत से धम्म किसके द्धारा नष्ट कर दिया गया, उसका भी पता चलता है। आप इतिहास को अच्छी तरह खंगालेगे तो किसने, किस साजिश के तहत उसके इतिहास को नष्ट किया, आपको जानकारी मिल जाएगी। असोक ने बहुत से विश्वविद्यालयों और मठों का निर्माण कराया। जब हम संपूर्ण विश्व के इतिहास को देखते है तो उसके जैसे राजा और शासन काल पूरे विश्व के इतिहास में कोई दूसरा नहीं मिलता।
बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर
सदियों में कोई एक ऐसा पुरुष पैदा होता है जो बहुत बड़ा लोक कल्याण करता है। वह समाज में बहुत बड़ा परिवर्तन लाता है। वह परिवर्तन समाजिक, आर्थिक, राजनितिक, धार्मिक और सांस्कृतिक लाता है , जिसका प्रभाव सदियों रहता है। ऐसा पुरूष युगपुरूष कहलाता है। बाबा साहब ऐसा ही एक युग पुरुष पैदा हुए। जिस समय भारतीय समाज में धर्म का अघय–पतन् हो गया था। समाजिक व्यवस्था दूषित हो गयी थी। मनुष्य–मनुष्य में जब भेद–भाव होने लगता है तो धर्म का हरास होने लगता है। धर्म का नाश होता है। धर्म की हानि होती है। धर्म की गुलामी होती है।
बाबा साहब अम्बेदकर का जन्म १४ अप्रैल १८९१ में वर्तमान मध्य प्रदेश के महु जिले (सेन्ट्रल प्रोविन्स) में हुआ था। उनका बचपन का नाम भीम था। उनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल था। उनकी माता का नाम भीमाबाई मुरबादकर सकपाल था। उनके पिता ब्रिटिश आर्मी में सुबेदार थे। सन् १८९४ में उनके पिता सुबेदार के पद से रिटार्यड हुए। उसके बाद वे महाराष्ट्र रत्नागिरी में आ गये। यहाँ उनका पैत्रिक घर था। कुछ साल में ही उनकी माता का देहान्त हो गया। उनकी माँ की मृत्यु के बाद पिता ने दूसरी शादी जीजाबाई से की और वे मुम्बई आ गये।
जब भीम पाँच साल के थे तो उनका स्कूल में दाखिला हुआ। वहाँ पर हिन्दु धर्म के अनुसार अछूत होने के कारण भेदभाव होता थे। विद्यालय में उन्हें सबसे अलग कोने में बैठने के लिए कहा जाता था। विद्यालय में पानी सर्वाजनिक बर्तन से नहीं पीने दिया था। भीम जब १५ वर्ष के थे तो उनकी शादी एक नौ साल की लड़की रामाबाई से हुआ। उन्हें स्कूल में संस्कृत नहीं पढ़ने दिया गया। उनका टीचर एक ब्राह्मण जाति का था। उसका कहना था कि भीम के संस्कृत पढ़ने से हिन्दू धर्म अपवित्र हो जाएगा।
हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद उनकी शादी रमाबाई से हो गयी। वे अपनी जाति के हाई स्कूल पास करने वाले पहले व्यक्ति थे। शादी के बाद उन्होंने पढ़ाई जारी रखी और इन्टर- मीडियट पास कर लिया। उनके परिवार के आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। बचपन से ही मेधावी होने के कारण वे लोगों के चर्चा का विषय बन गये थे। बड़ौदा के महाराजा गायकवाड की मद्द से उन्होंने बी०ए० की परीक्षा पास की। १९१२ में उनका नाम भीम से भीमराव हो गया।
महारजा गायकवाड नें भीमराव की प्रतिभा से प्रभावित होकर उनको पढ़ने के लिए अमेरीका भेजा। सन् १९१३ में वह न्यूयार्क शहर के विश्व विख्यात कोलम्बिया विश्वविद्यालय में पढ़ने गये। वहाँ पर उन्हें पहली बार, समानता, स्वतंत्रता का अनुभव हुआ। उन्होंने समाजशास्त्र, और अर्थशास्त्र में एम०ए० की परीक्षा पास की। फिर उन्होंने पी०एच०डी० किया। उसके बाद उन्हें पढ़ने इंलैण्ड भेजा गया। वहाँ से उन्होंने वकालत पास की।
पढ़ाई पूरा करने के बाद, वे वापस भारत लौट आए। वे बरोदा के महाराज के यहाँ करार के अनुसार नौकरी करने लगे। इतना पढ़ा लिखा होने के बावजूद उनके साथ भेद्भाव होता था। महाराज के यहाँ जो अन्य कर्मचारी थे, वे उनसे भेद्भाव करते थे। जहाँ कहीं भी वे जाते, उन्हें भाव का शिकार होना पड़ता। वे हिन्दु धर्म की इस व्यस्था से दुःखित थे।
लगभग छठी, सातवीं शताब्दी से भारत से धम्म का पतन होने लगा। उसके बाद से धर्म का तरह–तरह का दमन होने लगा। कुछ ही सदियों में भगवान बुद्ध की वाणी का उपदेश देने वाला भारत में कोई आचार्य नहीं रहा। धीरे–धीरे यह धम्म हमारे देश से लुप्त हो गया। जातिवाद सिर उठाने लगा। भारत से सम्यक संस्कृति नष्ट कर होने के बाद, समाज में ऐसी गलत व्यवस्था चल पड़ी थी कि एक आदमी महज जन्म के कारण ऊँचा माना जाता और एक आदमी महज जन्म के कारण नीचा माना जाता। यह धर्म के विरुद्ध बात थी। एक आदमी कितना भी पतित् क्यों ने हो, कितना दुराचारी ही क्यों न हो, किन्तु अमुक वर्ण की माँ की कोख से जन्मा है तो महान है, पूज्य है। एक व्यक्ति कितना ही सदाचारी ही क्यों नहीं हो, जितेंद्रिय क्यों नहीं हो, सज्जन क्यों नहीं हो, यदि वह अमुक माँ की कोख से जन्मा है, इसलिए वह पूज्य नहीं है। धर्म का बहुत अधय पतन हो चला था।
लोगों में यह गलत मान्यता फैल गयी थी कि ब्राह्मण कितना ही पतित क्यों न हो, फिर भी श्रेष्ठ है। शूद्र कितना ही जितेन्द्रीय क्यों न हो, सदाचारी क्यों न हो, फिर भी श्रेष्ठ नहीं है। ये धर्म के भेद–भाव, धर्म का नाश कर रहे थे। धर्म का अवमूल्यन हो गया था। तराजू के एक पलरे पर धर्म और तराजू के दूसरे पलरे पर माँ की कोख। माँ की कोख महत्वपूर्ण हो गयी, धर्म हीन हो गया। बहुत बुरी अवस्था थी।
जन्म के कारण कोई छोटा हो, कोई बड़ा हो, इस तरह का जातिवाद समाज के लिए कलंक है, एक रोग है। समाज के लिए हानिकारक है। यह एक बिमारी है। हमारे देश की समाजिक व्यवस्था बिगड़ते–बिगड़ते एक ऐसी अवस्था पर आयी कि यह राष्ट सदियों तक गुलाम रहा। आप जरा सोचे कि जाति प्रथा को किसने बनाया और इसके बनाने से किसको फायदा हुआ? जाति व्यवस्था बनाकर, यहाँ के लोगों को आपस में ही बाँट दिया। आपस में ही नफरत फैला दी। भारत को लोंगों को जातियों में बाटने से हमारा देश कमजोर हो गया। कमजोर होने के कारण, मुठ्ठी भर विदेशी आते और किसी भी राज्य पर कब्जा कर लेते। क्या यह काम उससे पहले सम्भव हो पाया था? जाति बनाकर किसको फायदा हुआ? जरा इस बात को सोचकर देखें और अपने गुलामी के कारणों को जाने।
भारत कई सदियों तक गुलाम रहा। सदियों के इस घोर अंधकार में बाबा साहब का जन्म हुआ। उस समय समाज की हालत बहुत ही दयनीय थी। देश की हालत, समाज की हालत बहुत बिगड़ी हुई थी। धर्म का ऐसा अधय–पतन हो गया था कि लोगों का मानना था कि कोई मनुष्य को छूने से अपवित्र हो जाता है। किसी पशु को छूते हो, गाय को छूते हो, बैल का छूते हो, कुत्ते को छूते हो बिल्ली को छूते हो, उसे थप–थपाते हो, उसे पुचकारते हो तो अपवित्र नहीं होता, लेकिन एक मानव को छूने पर अपवित्र हो जाता था। यह धर्म का नाश ही है न कि और क्या है? किसी मंदिर में गाय घुस जाती है, कुत्ता घुस जाता है, बिल्ली घुस जाती है, पंक्षी घुस जाता है तो मंदिर अपवित्र नहीं होता। लेकिन, यदि एक मानव पुत्र मंदिर में चला जाय तो वह मंदिर अपवित्र हो जाता। किसी तालाब में एक गाय पानी पी लेती है। एक बकरी पानी पी लेती है, भेड़ पानी पी लेती है, पक्षी पानी पी लेती है तो वह अपवित्र नहीं होता, पर एक मानव पुत्र उस तालाब से पानी पी लेता है तो वह सारा तालाब अपवित्र हो जाता। यह धर्म का कितना अधय–पतन हो गया था। उसमें धर्म का कहीं नामोंनिशान तक नहीं, फिर भी लोग ऐसे धर्म को ढाऐ जा रहे थे।
बाबा साहब अंबेडकर का बचपन बहुत ही संघर्ष भरा रहा। जब वे स्कूल पढ़ने गये तो उनके साथ खूब भेद-भाव हुआ। उन्हें पानी पीने नहीं दिया जाता था। उन्होंने खूब अध्यन किया। वर्तमान भारत के इस युग में पूरे भारत में कोई ऐसा व्यक्ति हुआ नहीं जो उनके मुकाबले किसी अन्य ने इतना अध्यन नहीं किया। अपने लिए कॉलिज की पढ़ाईयों में डॉक्टरेट लेना तो है ही, लेकिन उससे बड़ी बात यह है कि उन्होंने दुनियाँ भर के जितने भी संप्रदायों की धर्म ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। इस दूषित समाज व्यवस्था को जहाँ मनुष्य, मनुष्य का पर शोषण करता है, उनको पीणित करता है, ऐसी व्यवस्था क्यों अपनाए? इसके लिए उन्होंने खूब अध्यन किया। इस अध्यन के परिणाम स्वरुप, भगवान बुद्ध की शिक्षा उनके सामने आयी। उन्होंने उनके द्वारा मानवता को दिये गये संदेशों को पढ़ा। उन्होंने पाया कि यह कितना सार्वजिनक है, कितना सार्वभौमिक है, यह कितना सार्वकालिक है। यह मनुष्य के लिए, मनुष्य के द्वारा दिया गया कुदरत का कानून है। यह समानता, बंधुता, प्रेम, करूणा और न्याय पर पर अधाररित है। इस धम्म में मनुष्य अपना उद्धारकर्ता खुद है। कोई बाहरी शक्ति नहीं है।
भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद जो उनके प्रमुख शिष्य थे। उन्होंने ने देखा कि कहीं भगवान बुद्ध की वाणी और भगवान बुद्ध की विद्या नष्ट न हो जाय, दूषित न हो जाय, इसमे कुछ जोड़ न दिया जाय, इसमें कुछ घटा न दिया जाय, तो उस समय पाँच सौ भिक्खुओं ने मिलकर पहला संघायन किया। भगवान की वाणी को शुद्ध रुप में संकलित किया। सौ वर्ष के बाद जब लोग इधर–उधर भटकने लगे तो दूसरा संघायन हुआ। ईशा से २५० वर्ष में तीसरा संघायन हुआ। यह तीसरा संघायन सम्राट असोक के समय में हुआ। सारी वाणी एक बार फिर संपादित हुई और पड़ोसी देशों को भेजी गयी। लंका में भेजी गयी। बर्मा में गयी। थाईलैण्ड में गयी। मिश्र में गयी। कम्बोडिया में गयी। लाओस में गयी। इसके अतिरिक्त अन्य कई देशों जैसे मिश्र, यूनान, फारस आदि देशों में गयी।
अगर असोक धम्म को पड़ोसी देशो में नहीं भेजा होता तो आज भगवान की वाणी इस संसार से लुप्त हो गयी होती। इसलिए, हम सभी सम्राट असोक का बड़ा उपकार मानते है। चौथा संघायन लंका में हुआ। पाँचवा संघायन स्वर्णभूमि बर्मा में हुआ। और छँठा संघायन भी २५०० वर्ष पूरे होने पर म्यनमार में ही हुआ।
ऐसा लोगों की मान्यता थी कि हर २५०० वर्ष बाद बुद्ध का शासन भारत में एक बार फिर से शुरु होगा। जो अगले २५०० वर्षो तक चलेगा। कुछ लोग तो इसे दस हजार वर्ष या उससे अधिक का शासन मानते है। छँठा संघायन १९५४ से १९५६ तब वर्मा में हुआ। बाबा साहब उस धर्म संघायन में शामिल हुए। वे घर लौट कर उन्होंने हजारों लोगों के साथ भगवान बुद्ध की शिक्षा स्वीकार की। उन्होंने एक बार फिर भारत में धर्म का बिगुल बजाया। उन्होंने एक सपना देखा था कि यह भारत बुद्धमय बनेगा। तभी इस देश का कल्याण होगा।
भारत के समाज में एक ऐसी कुप्रथा है कि लोग भगवान बुद्ध को विष्णु का आठवाँ अवतार तो मानते है, पर उनकी शिक्षा को ग्रहण नहीं करते। कहीं–कहीं तो यह अफवाह फैलाते हैं कि उसने अपने परिवार को छोड़ दिया था, इसलिए उनकी शिक्षा हमारे काम की नहीं। कुछ लोग यह कहते है कि उनकी शिक्षा लोगों के नर्क में भेजती है। इस तरह की अफवाह फैलाकर लोगों को उनकी शिक्षा पढ़ने, जानने और समझने से बहकाया जाता है। कहीं–कहीं तो कहते है कि इस धर्म को नीच जाति के लोग ग्रहण करते हैं। अज्ञानता के इस जातिवाद में फँसे लोग अपने को बड़ी जाति में ऊँचा दिखाने के लिए, तो किसी को नीचा दिखाने के लिए उनकी शिक्षा ग्रहण नहीं करते। बुद्ध वाणी में जातिवाद और संप्रदाय का कोई स्थान नहीं।
बुद्ध ने धर्म को तीन नामों से संबोधित किया।
१–सत्यधर्म,
२–केवलं परिपूर्णं
३–केवलं परिशुद्धं
सत्यधर्म– यह धम्म किसी कल्पाना पर अधारित नहीं है। बल्कि, जो अनुभव के अधार पर सत्य को जाने और धारण करें, वही धर्म है।
केवलं परिपूर्णं– बुद्ध की शिक्षा परिपूर्ण है। उसमें कोई चीज जोड़ना नहीं। उसमें कुछ अपने से जोड़ना दोष की बात है। क्यों दोष की बात है। क्योंकि वह परिपूर्ण है। यह शिक्षा आदि में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी और अंत में कल्याण्कारी है।
जब हम शील का पालन शुरु कर देते है तभी हमारा कल्याण होना शुरु हो जाता है। मन को वश में करें। उसके लिए समाधि का अभ्यास करें और कल्याण हो जाएगा। मन को निर्मल करने के लिए प्रज्ञा का प्रयोग करें। तो कल्याण ही कल्याण हो गया। दुःखों से मुक्ति मिल जाती है।
केवलं परिशुद्धं– यह धम्म परिशुद्ध है। इसमे कुछ निकालने के नहीं है। शील या समाधि या प्रज्ञा को निकाला नहीं जा सकता।
उपरोक्त कारणों से बाबा साहब ने उसे स्वीकार किया। भगवान बुद्ध की शिक्षा का कोई विरोध नहीं कर सकता। बुद्ध की शिक्षा में सभी बराबर है। इसमें ऊँची जाति, नीची जाति को कोई स्थान नहीं है। अमीर–गरीब, विद्वान और अनपढ़ सबके लिए समान है। बुद्ध की शिक्षा ऐसी है कि इससे सबका कल्याण होता है। भगवान बुद्ध का धर्म मानव को एक अच्छा आदमी बनाता है।
बाबा साहेब अंबेडर ने इसीलिए, एक ऐसे संविधान को निर्माण किया, जिसमे सबको बराबर का अधिकार दिया। इस संविधान को सब ने स्वीकार किया। सारे देश ने स्वीकार किया। पर, आज भी कानूनी रुप से स्वीकृति तो है, पर गाँव या समाज में आज भी गैर बराबरी का भेद–भाव है।
धर्म का उद्देश्य
धर्म जब लोगों को एक दूसरे से जोड़ता है तो धर्म है। जब यह इंसान–इसान मे भेद करता हो और बाँटता है तो वह धर्म नहीं है। धर्म लोगों को जोड़ने के लिए होता है, बाँटने के लिए नहीं। धर्म परिवर्तन के बारे में बहुत सी बातें कही जाती है और कही गयी हैं। कुछ बातें धर्मपरिवर्तन के पक्ष में कही जाती है और कुछ बातें धर्म परिवर्तन के विरोध में। मेरा मानना है कि धर्म परिवर्तन का मतलब यह नहीं कि एक संघटित संप्रदाय से दूसरे संप्रदाय में परिवर्तन, बल्कि परिवर्तन दुःखों से सुख की तरफ, परिवर्तन गुलामी से अजादी का परिवर्तन, क्रूरता से करुणा में परिवर्तन। यह सही परिवर्तन है। और इसे ही पालन करना सही है।
हमारे देश ने सिर्फ सुख और शांति का केवल संदेश ही नहीं दिया, बल्कि यह भी बताया भी कैसे सुख, शांति को प्राप्त कर सकते है। भाई–चारा कैसा हो। मेरा मानना है कि समाज में शांति के लिए स्वयं को छोड़ नहीं सकते। यदि एक मनुष्य के मन में शांति नहीं है तो संसार में शांति कैसे आ सकती है? यदि हमारे पास एक अशांत मन है जो हमेशा क्रोध, अहंकार, और द्वेष से भरा है तो हम कैसे दुनिया में शांति और भाई–चारा का संदेश दे सकते है? क्योंकि मैं एक खुद अशांत व्यक्ति हूँ। इसलिए, एक महान व्यक्ति ने कहा है कि पहले अपने अंदर शांति लाओ। उसके लिए पहले अपने आप में झाँककर देखो कि अपने अंदर सचमुच शांति है या नहीं। जितने भी संत, महापुरुष हुए है, सभी ने यही कहा है कि अपने आप को जानो। अपने आपको केवल बुद्धि के स्तर पर नहीं, किसी विश्वास के स्तर पर नहीं, किसी की भक्ति के स्तर पर नहीं, बल्कि वास्तविक स्तर पर समझों। जब आप अपने अंदर, अपने आप को अपने अनुभव के अधार पर जानने लगगे तो बहुत सी समस्यायें अपने आप हल हो जाएगी। आप जब समझना शुरु करते है कि प्रकृति का सार्वभौमिक सत्य क्या है जो सबके लिए समान रुप से लागू होता है। जब मैंने अपने आपको खुद देखना शुरु किया तो हमने पाया कि जब हम क्रोध, घृणा, और द्वेष जगाते है तो सबसे पहले इसका शिकार मैं खुद होता हूँ। मैं अपनी घृणा का पहला शिकार खुद होता हूँ। मैं अपने द्वेष का शिकार खुद होता हूँ। यह एक प्राकृति का सार्वभौमिक नियम है। जब हम अपने आपको खुद निरीक्षण करते हैं, तो पाते हैं कि जैसे ही हमने अपने मन के अंदर कोई नकारात्मक विचार या अकुशल धर्म जगाता है तो तुरंत ही हमारे शरीर में बहुत सी भौतिकि और जैविक क्रियाएं शुरु हो जाती है। हमारा शरीर गरम हो जाता है। हृदय जोर–जोर से धड़कने लगता है। शरीर तनाव में आ जाता है, और मैं दुःखी हो जाता हूँ। जब मै अपने अंदर दुःख का निमार्ण करता हूँ तो दुःख अपने आप तक ही सीमिति नहीं रखता, हम अपने दुःखों को दूसरों पर उसे फेंकना शुरु कर देते हैं। हम अपने आस–पास के वातावरण को इतना तनाव मुक्त बना देते हैं कि जो कोई मेरे संपर्क में आता है, वह भी दुःखी हो जाता है। यहाँ तक कि जब हम शांति और खुशी की बात करते हैं, उस समय भी अपने अंदर झांककर देखे कि हमारे अंदर क्या हो रहा है। यह बात दूसरे चीजों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह प्रकृति का स्वभाव है।
दूसरी तरफ, जब हमारा मन नकारात्मक विचारों से मुक्त होता है तो मन शुद्ध होता है। फिर प्रकृति का सार्वभौमिक नियम काम करने लगता है। जब मन शुद्ध होता है, उस समय हम अपने अंदर देखते है कि प्रकृति हमे पुरस्कार देना शुरु कर कर देती है। हम अपने अंदर सुख और शांति महशूस करते है। इसलिए, कोई व्यक्ति चाहे वह किसी धर्म का हो, या किसी भी दार्शनिक मान्यता को मानता हो, इस देश या किसी और देश का हो, जब वह प्रकृति के नियम को तोड़ता है और अपने मन में नकारात्मक विचार मन में जगाता है तो वह निश्चित रुप से दुःखित होगा। यह प्राकृति का नियम है। प्राकृति उसे दण्ड देना शुरु कर देती है। अपने अंदर नर्क की आग जलने लगती है। जब हम वर्तमान जीवन में इसी नर्क का बीज हम बो रहे है तो मृत्यु के बाद हम निश्चित रुप से नर्क की आग ही मिलेगी। यही प्राकृति का नियम है।
यदि हम अपने मन को शुद्ध विचारों से भरे रहेगे, करुणा से भरे रहेगे, मैत्री से भरे रहेगे तो हम अपने अंदर, वह स्वर्ग का सुख प्राप्त करना शुरु कर देगे। यह स्वर्ग का बीज मुत्यु के बाद भी स्वर्ग का ही फल देगा। चाहे वह अपने को हम हिंदू कहे, मुस्लिम कहें, इशाई कहे, बुद्धिष्ठ कहे, जैन कहे, यहूदी कहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। मानव तो मानव ही है। मनुष्य का मस्तिष्क तो मनुष्य का ही मस्तिष्क है। इसलिए, पविर्तन अशुद्ध मन से शुद्ध मन में परिवर्तन होना चाहिए। कैसे लोग बदल जाते है इसमे कोई चमत्कार नहीं है। यह खुद कर के, जाँच करके देखने की प्रणाली है। कैसे मन और पदार्थ एक दूसरे को प्रभावित करते है। यदि इसे जाँच करके देखेगे तो हम प्राकृति के नियम को स्पष्टता से समझ जाएगे कि जैसे ही हम नकारात्मक विचार मन में जगाते है, तुरंत ही हम दुःखी हो जाते है। और जैसे ही हम इन नकारात्मक विचारों से दूर रहते हैं तो तुरंत ही हम अपने अंदर सुख और शांति को अनुभव करने लगते हैं।
यह नियम किसी के द्वारा सीखा और अपनया जा सकता है। यह तक्नीक हमारे भगवान बुद्ध के द्वारा दी गयी है। यह एशिया के बहुत से देशों में अपनायी जाती है। और युरोप के कई देशों में यह सिखाया जाता है। इस तक्नीक में सभी धर्मो के लोग, विभिन्न मान्यता के लोग, विभिन्न सभ्यता के लोग आते हैं और करते हैं। और सभी एक ही तरह का लाभ पाते हैं।
आप चाहे जिस किसी धर्म के हो हिंदू या मुस्लिम, इशाई, बुद्धिष्ठ, यहूदी, पारसी, जैन या किसी भी धर्म को हो, आप अपने धर्म में बने रह सकते हैं। इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। मानव तो मानव ही है। तो प्रश्न यह उठता है कि बुद्ध की शिक्षा और उनके द्धारा जीवन जीने की तकनीकि से क्या फर्क पड़ता है? फर्क पड़ता है। एक बहुत बड़ा अंतर आ जाता है। वे वास्तविक रुप से आध्यात्मिक व्यक्ति बन जाता है। वह अंदर करुणा, प्यार और मैत्री से भरा होता है। वह उसके लिए लाभकारी होता है और दूसरे के लिए भी। जब हम अपने मन में शांति और प्रेम का विचार जगाते है तो हमारे चारों तरफ का वातावरण शांति और प्रेम की तरंगों से भर जाता है। उन तरंगो के समीप में जो भी आता है, वह भी शांति का आनंद लेता है। यही परिवर्तन आवश्यक है। और कुछ नहीं।
सुजाता
निरंजरा नदी के तट के समीप उरुवेला ग्राम के समीप के जंगल में बिना अन्न खाए और बिना पानी पिये सिद्धार्थ गौतम अपने पाँच साथियों के दुःखों से मुक्ति के लिए तपस्या कर रहा था। उन दिनों भारत में मनुष्यों के दुःखों की मुक्ति के लिए तरह–तरह की मुक्ति पाने की धार्मिक पंथ थे। विभिन्न पंथो के मानने वालों का ऐसा विश्वास था कि इस शरीर को कष्ट देकर मनुष्य अपने पापों से मुक्त होकर, अपने दुःखों से छुटकारा पा सकता है। सिद्धार्थ गौतम ने ऐसे ही तरीकों का पालन करते-करते अपने भोजन को धीरे–धीरे इतना कम कर दिया कि वह एक दिन में सिर्फ दो दाने भोजन की मात्रा लेता था। उसका शरीर सूख कर एकदम पतला हो गया। उसका शरीर का अस्थि पंजर साफ-साफ दिखने लगा था। उसकी आँखे खोपड़ी के गड्ढे में धँस गयी थी। त्वजा सूख कर काली छाल की तरह हो गयी थी। बाल टूटकर असानी से गिर जाते थे। उसके पेट की चमड़ी और पीठ की चमड़ी मिलकर एक हो गयी थी।
इस जंगल के कुछ दूर सेनानी नाम का एक गाँव था। उस गाँव के एक बहुत ही धनी जमींदार रहता था। उसकी एक लड़की थी जिसका नाम सुजाता था। वह बहुत ही खूबशूरत थी। सुजाता जब विवाह योग्य हुई तो उसके पिता ने कई जगह सुयोग्य वर की तलाश किया, पर कोई उसके योग्य लड़का नहीं मिला। सुयोग्य वर तलाशते हुए कई वर्ष बीत गये।
उन दिनों लोगों की मान्यता थी कि वन में पेड़ों की पूजा करने से जो भी मनोकामना माँगी जाती है, उसे वन के देवता प्रसन्न होकर पूरी करता है। गाँव के लोगों ने सुजाता को भी यह सलाह दिया। एक दिन सुजाता वन में जाकर, एक बड़े से बरगद के पेड़ की सामने नमस्कार करते हुए प्रार्थना किया, “हे इस वन के देवता, अगर मेरा विवाह एक सुयोग्य लड़के से हो जाता है तो मैं आपके लिए खीर चढ़ाऊँगी।”
कुछ दिनों बाद, उसका विवाह उसके मनोकामना के अनुसार ही एक सुंदर सुयोग्य लड़के के साथ हुई। शादी से जल्द ही उसे एक सुंदर पुत्र भी उत्पन्न हुआ। उसके खुशी का ठिकाना नहीं था। उसे अपना वन देवता से किया गया वादा याद था। इसलिए, उसने अपना किया हुआ वादा पूरा करने के लिए वह अपने पिता के घर आयी थी। उसके पिता के पास सैकड़ों भैसें थी। उसने पूजा के नियत दिन के कुछ दिन पहले से ही भैसों को तरह–तरह जड़ी–बुटियों से युक्त घास खिला रही थी ताकि उनका दूध मीठा और स्वादिष्ट हो जाय। निर्धारित दिन को वह सुबह नहा–धोकर घर बहुत ही स्वादिष्ठ खीर बना रही थी। उसकी नौकरानी का नाम पुन्ना था। उसने पहले अपनी नौकरानी को जंगल में भेजा ताकि उस पेड़ के आस–पास जो गंदगी या घास–पात है, उसे साफ कर दे। जब पुन्ना वहाँ पहुँची तो उसने वहाँ पर तपस्वी सिद्धार्थ को उस पेड़ के नीचे ध्यान की मुद्रा में बैठे पाया। सिद्धार्थ गौतम का शरीर पर केवल अस्थि पंजर बचा था। ऐसा दृश्य देखकर उसने सिद्धार्थ को वन देवता समझकर बहुत ही विस्मित हुई। वह तुरंत दौड़ती हुई वापस अपने मालकिन के घर पहुँची। उसने बताया कि वन के देवता स्वयं उस पेड़ के नीचे प्रकट हुए हैं और ध्यान में बैठे हैं। सुजाता यह सुनकर बहुत खुश हुई। सुजाता ने स्वयं अपने हाथों से एक सोने के कटोरे में खीर को भरा और जंगल में वन देवता को चढ़ाने चल दी।
पुन्ना के जाने के बाद सिद्धार्थ गौतम ने नदी में स्नान करने को निर्णय किया। पेड़ के नीचे से उठकर निरंजरा नदी में स्नान करने के लिए प्रवेश किया। उसका शरीर बहुत कमजोर हो गया था। नदी में नहाकर जब बाहर निकलना चाहा तो उसका शरीर इतना दुर्बल हो गया था कि वह निकल नहीं सका। उसकी सांसे फूलने लगी और आँखों के सामने अंधेरा छा गया। उसने नदी के तट पर जो घास की लताएं थी, उनको पकड़कर अपने को गिरने से बचाया। उसके पैर उठ नहीं पा रहे थे। कुछ देर के लिए उसने अपने साँस पर नियंत्रण किया और लताओं को पकड़ कर किसी तरह नदी से बाहर निकला। उसने सोचा, “इस तरह की तपस्या का क्या लाभ जो मुनष्य को इतना कमजोर बनाए कि वह एक सामान्य सी नदी को नहीं पार कर सके। इस तरह की साधना से जब वह इस नदी से बाहर नहीं निकल सकता जो कि इतना साधारण सा काम है तो इससे मनुष्य अपने दुःखों के भव सागर को कैसे पार कर सकता है?” उसे अपने बचपन की एक घटना याद आयी।
जब वह अपने पिता के घर था तो एक दिन एक पेड़ की छाया में साधना में बैठ गया। उसका मन शांत और स्वस्थ था। उसकी सारी इंद्रियाँ पूर्ण रुप से काम कर रही थी। वह पाया कि इस तरह शरीर को कष्ट देकर, ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। एक स्वस्थ मन के लिए, स्वस्थ शरीर का होना बहुत आवश्यक है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। इसलिए वह गाँव में जाकर भोजन माँगकर खाने को निर्णय किया। वह गाँव की तरफ चल दिया। पर उसका शरीर इतना कमजोर हो चुका था कि वह रास्ते में ही गिर कर लगभग बेहोश हो गया।
सुजाता अपनी नौकरानी पुन्ना के साथ खीर चढ़ाने उसी रास्ते से जंगल में आ रही थी जिस रास्ते पर सिद्धार्थ गिरा पड़ा था। उसने सिद्धार्थ को उठाया देखा और जाकर उठाया। सिद्धार्थ बोल पाने में भी असमर्थ था। उसने कुछ खाने का इशारा किया। सुजाता ने उसे खीर खिलाया। अन्न का दाना और जब दूध शरीर के अंदर गया तो उसके शरीर में उर्जा का संचार हुआ। उसके बाद सुजाता ने कहा कि वह अपने शरीर को इस तरह कष्ट नहीं दे। उसने कहा कि जब तक उसे कोई ज्ञान नहीं प्राप्त हो जाता, तब तक वह नियमित भोजन देती रहेगी। इस घटना के कुछ दिनों बाद में ही सिद्धार्थ का शरीर पूर्णरुप से स्वस्थ हो गया। उसने अपनी कड़ी साधना के बाद, ज्ञान की प्राप्ति की। वह सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बन गये।
पटाचारा
यह बुद्ध के जीवन काल की एक घटना है। सावती में एक बहुत ही अमीर आदमी रहता था। उसका नाम दानदास था। उसकी एक बेटी थी जो बहुत की खूबसूरत थी। उसका नाम रुपवती था। उसके माता–पिता उसे बहुत प्यार करते थे। उसका कुछ बुरा न हो जाय, इसलिए वे उसको अपने घर के बहुमंजिल इमारत के उपरी मंजिल पर रखते थे। उसे रहने–खाने की जितनी सुख–सुविधाएं वे दे सकते थे, उन्होनें उसे दिया। उसे कहीं अकेले बाहर जाना मना था।
रूपवती का बचपन बहुत ही सुखमय बीता। सारी सुख-सुविधाएं उसे घर पर ही मिल जाती थी। बाहर समाज में किसी से नहीं मिलने-जुलने के कारण उसकी कोई सहेली नहीं थी। रूपवती का बचपन से कोई सहेली नहीं होने के कारण, वह अपने घर के नौकर से ही प्यार करने लगी थी। पर उसे पता था कि उसके माता–पिता उसे स्वीकार नहीं करेगे। जब वह सोलह साल की हुई तो उसके माता–पिता ने उसे अपने ही जैसे अमीर परिवार के लड़के से उसका विवाह करने का प्रबंध किया। जब उसे इस बात का पता चला तो वह शादी के कुछ दिन पहले ही अपने नौकर के साथ भाग गयी। भागकर उसने नौकर से शादी कर ली।
शादी के बाद जब पटाचारा को पहला बच्चा जन्म देने का समय आया तो उस समय की प्रथा के अनुसार, वह अपने माँ–बाप के घर जाने को सोचा। उसने अपने पति से कहा, “मैंने शादी अपने माता–पिता के मर्जी के खिलाफ किया है। इस समय मेरा बच्चा जनने का समय आ गया है। यहाँ पर हमारी कोई देख–भाल करने वाला कोई नहीं है। इसलिए मैं चाहती हूँ कि बच्चा अपने माँ–बाप के घर जन्म दूँ। हर माँ–बाप के दिल में अपनी संतान के लिए उनके हृदय में जगह होती है। इसलिए मेरी तुम से प्रार्थना है कि मुझे अपने माँ–बाप के घर ले चलो।” इस पर उसके पति ने कहा, “भाग्वान्, क्या कह रही हो। अगर, तुम्हारे माँ–बाप ने मुझे देख लिया तो वे मुझे तड़पा–तड़पा कर मार डालेगें। इसलिए वहाँ जाने का प्रश्न ही नहीं उठता।” उसने बार–बार प्रार्थना करने पर भी उसके पति ने मना कर दिया।
एक दिन जब उसका पति घर पर नहीं था तो वह अपने एक पड़ोसी से बोली, “मैं अपने मायके जा रही हूँ। मेरा पति पुछे तो बता देना।” यह कहकर वह अपने मायके का रास्ता पकड़ ली। कुछ देर के बाद जब उसका पति काम करके घर लौटा तो रुपवती घर पर नहीं थी। वह तुरंत अपने पड़ोसी के घर गया और वहाँ उसे पता चला कि उसकी पत्नि मायके चली गयी है। जैसे ही उसने सुना, वह तुरंत रुपवती को मनाने दौड़ पड़ा। कुछ ही समय में उसने रास्ते में अपनी पत्नि को पकड़ लिया। उसने घर वापस लौटने के कहा। रुपवती लौटना नहीं चाहती थी। तभी उसे प्रसव पीढ़ा आरंभ हो गयी और उसने एक बच्चे को जन्म दिया। जब बच्चा जन्म ले लिया तो उसने सोचा– अब मेरा माँ–बाप के पास जाने का कोई लाभ नहीं। इसलिए वह अपने पति के साथ बच्चे को लेकर अपने घर लौट आयी।
समय बीतता गया और कुछ साल बाद उसे फिर दूसरा बच्चा जनने का समय आया। इस बार भी उसने अपने पति से उसे मायके छोड़ने के लिए कहा। इस बार भी उसके पति ने इंकार कर दिया।
इस घटना के कुछ दिन बाद, जब उसका पति काम से बाहर गया हुआ था, उसने अपने बड़े बच्चे को साथ में लिया और अपने माता–पिता के घर सावती के लिए रवाना हो गयी। जब यह बात उसके पति को मालूम हुई तो वह भागता हुआ उनके पीछे दौड़ा। उनका पीछा करते–करते रात हो चली थी। वह उन्हें जंगल के पास रास्ते मे पकड़ लिया। वह उसे घर लौट आने को कहने लगा, पर वह सुनने को तैयार नहीं हो रही थी। तभी एक तुफान आया और कुछ ही देर में घनघोर बारिष होने लगी। आकाश में रह–रह कर बिजली कौध रहीं थी। तभी उसे प्रसव पीढ़ा उत्पन्न हुई। बच्चे और पत्नि को इस तूफान से बचाने कि लिए उसके पति ने सोचा कि कुछ पेड़ की टहनियाँ और कुछ झाड़ काट लाए ताकि वारिश से बचने के लिए कुछ छप्पर नुमा झोपड़ी तैयार कर सके। उसके पास एक कुल्हाड़ी थी। उसने देखा कि एक छोटे से टीले पर बहुत घनी झाड़ी है। वह उसे काटने के लिए गया। जब वह उस टीले से झाड़ियाँ काट रहा था, तभी उसमें से एक जहरीला साँप निकला और उसे डंस लिया। वह तुरंत वही गिरकर मर गया।
उधर रुपवती अपने पति का लौटने का इंतजार कर रही थी। उसकी प्रसव की पीढ़ा भी तेज होते जा रही थी। चारों तरफ घनघोर वारिष हो रही थी और खूब तेज हवा चल रही थी। रह–रहकर आसमान में बिजली खूब कड़क रही थी। कुछ ही पल में उसकी प्रसव पीढा बढ़ी और उसने भयंकर तूफानी रात में खुले आसमान के नीचे अपने बच्चे को जन्म दिया। कमजोर व थकी हुई वह वारिष में भीगती–काँपती अपने नवजात बच्चे को कलेजे से चिपकाए हुई थी। वह एक हाथ से अपने बड़े बच्चे को झुक कर किसी तरह से वारिष और ठण्ड से बचाने का प्रयास कर रही थी। सारी रात बारिष, और तुफान चलता रहा। उसके साथ उसका लड़का भी पूरी रात पानी में भीगता और ठण्ढ से काँपता रहा। रात के घुप अँधेरे में वह कुछ नहीं कर सकती थी। सुबह होते–होते तुफान और वारिष दोनों शांत हो गये।
अगले दिन जब सुबह हुई तो रूपवती अपने पति को तलाशने चल पड़ी। वह किसी तरह उठकर अपने नवजात बच्चे को एक हाथ से गोद में लेकर और दूसरे बच्चे का हाथ पकड़कर अपने पति को तलाशने लगी। कुछ ही देर में वह उस टीले पर पहुँची जहाँ पर उसका पति झाड़ काटने गया था। उसने अपने पति को मरा हुआ पाया। उसके मुँह से झाग निकला हुआ था। उसे किसी ने साँप ने काट लिया था। वह अपने भाग्य पर फूट–फूटकर रोने लगी– यह सब मेरी वजह से हुआ है! अब मैं क्या करुँगी और कैसे रहूँगी! यह कहकर रोती–चिलाती। वह रोती–बिलखती हुई अपने दोनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर सावथी की तरफ चल दी। रास्ते में उसे अकीरावती नदी मिली जिसे पार होकर वह सावथी जा सकती थी। रात में वारिष होने के कारण नदी में पानी बढ़ गया था। पानी का बहाव तेज हो गया था। वह पिछली रात से थकी और कमजोर हो चुकी थी। वह दोनों बच्चों को एक साथ लेकर नदी पार नहीं कर सकती थी। इसलिए उसने अपने बड़े बच्चे को किनारे पर खड़ा कर उसे प्रतीक्षा करने के लिए कहा। वह अपने नवजात बच्चे के लेकर नदी के उस पर गयी। उसे एक कपड़े में लपेटकर पास में एक चट्टान पर रख दिया। बच्चे को चट्टान पर रखने के बाद, वह दूसरे बच्चे को लेने दूसरे पार जाने लगी। अभी वह नदी के बीच में ही थी कि सामने से एक चील आसमान से उड़ता हुआ, उसके नवजात बच्चे की तरफ झपटा। शायद चील ने उसे कोई माँस का टुकड़ा समझ लिया हो। जब रूपवती ने चील को देखा तो उसे होश उड़ गये। वह हाथ हिलाकर चील को सूऽऽ सूऽ कर भगाने लगी। लेकिन अगले ही पल, चील उसके नवजात बच्चे को अपने पंजे में दबाए ले उड़ा। वह कुछ नहीं कर सकी। दूसरे छोर पर जो उसका बच्चा खड़ा था, जब उसने अपने माँ को नदी में हाथ हिलाते हुए देखा तो उसने सोचा कि माँ उसे बुला रही है। इसलिए वह तुरंत पानी में उतर गया। पानी का बहाव इतना तेज था कि वह पानी में बह गया। जब माँ की निगाह अपने दूसरे बच्चे पर पड़ी जो पानी में बहे जा रहा था। वह बच्चे को पानी में बहता देख वह पागलों की तरह उसे बचाने दौड़ी। पानी का बहाव इतना तेज था कि वह उसे पकड़ नहीं सकी।
अपने दोनों बच्चों और अपना पति को खोकर उसके दुःख का कोई ठिकाना नहीं रहा। वह रोती और खूब रोती। अपने भाग्य को कोसती। वह रोते हुए कहती, “एक बच्चा मेरा चील ने उठा लिया, दूसरा नदी में बह गया और मेरा पति जंगल में मर गया। हाय रे! मेरे भाग्य! मैं कैसे जीऊँ! किसके लिए जीऊँ…! अपने पति और अपने बच्चे खोकर रोती–बिलखती अपने माता–पिता के गावँ के तरफ चल दी। अभी वह गाँव से कुछ दूर रास्ते में ही थी कि उसकी मुलाकात दूसरी तरफ से आते हुए एक आदमी से हुई।
उसने किसी तरह, अपने आप को संभाल कर उस व्यक्ति से पूछा– महोदय, आप कहाँ के रहने वाले हो?
आदमी– मैं सावथी का रहनेवाला हूँ।
रुपवती– क्या आप सावथी में अमुक मोहल्ले के, अमुक गली के, अमुक–अमुक नाम के व्यक्ति को जानते हो?
आदमी– हाँ मैं जानता हूँ। पर, उस परिवार को छोड़कर किसी और परिवार के बारे में पूछो जिनको तुम जानती हो?
रुपवती– मैं केवल उसी परिवार को जानती हूँ। कृपया आप उनके बारे में बताओ।
आदमी– नहीं, उस परिवार को छोड़कर किसी और के बारे में पूछना है तो पूछ सकती हो।
रुपवती– श्रीमान्, मैं किसी और परिवार के बारे में सचमुच नहीं जानती।
आदमी– यदि तुम ऐसा अनुग्रह कर रही हो तो मैं बताता हूँ। बीती रात जो रात में तूफान आया था, उसने बहुत तबाही मचाया है। उस तूफान में बहुत से मकान गिर गये और बहुत से लोग भी मर गये हैं। दुर्भाग्य से उन मरने वालों में से वह परिवार भी था। उनका घर, इस भारी तुफान में गिर गया। अब उस परिवार का कोई भी सदस्य जीवीत नहीं बचा है। उसने कुछ दूरी पर जलती हुई चिता की तरफ हाथ दिखाते हुए कहा, “उधर जो आग की लपटें जो दिखाई दे रही हैं, वह उन सब की चिता की आग है। अभी–अभी उन सबको हम चिता पर रख कर आ रहे हैं”।
रुपवती ने जैसे ही यह बात सुनी कि अब उसके माँ–बाप और भाई, कोई भी नहीं रहा तो उसके मुँख से एक पीढ़ा की चीख निकल पड़ी। वह दुःख और वेदना में जमीन पर लोटने लगी– हाँय रे मेरे भाग्य! इस पूरी दुनियाँ में मुझसे बड़ा अभागिन कोई नहीं होगा। मेरे पति को साँप ने डंसा। दो बच्चे थे, एक को चील ले गया और एक नदी में बहकर मर गया। अरे! अब तो मेरे माता–पिता और भाई भी नहीं रहे! वह दुःखों से इस तरह पागल हो चुकी थी उसके शरीर से कब और कहाँ वस्त्र अलग हो गये, उसे होश ही नहीं रहा। वह सावथी की गलियों में नंगे, पागल अवस्था में रोती–चिल्लाती। कभी इधर दौड़ती तो कभी उधर। गाँव के लोग भी उसके इस दुर्भाग्य से बहुत दुःखित थे। उस गाँव के ही कुछ लोगों को उसकी हालत पर बहुत दया आ गयी। वे उसे लेकर जेतवन के विहार में ले गये। भगवान बुद्ध उन दिनों जेतवन में ठहरे हुए थे। वहाँ भगवान बुद्ध अपना धम्म उपदेश दे रहे थे। जब बुद्ध ने उसे देखा तो सबसे पहले उसे भिक्षुणियों से उसे नहलाकर वस्त्र से उसे ढकने देने को कहा। एक भिक्षुणी में अपने वस्त्र को फाड़कर पहले उसकी नंगे शरीर को ढक दिया। जब उन्होंने ऐसा कर लिया तो बुद्ध ने बहुत ही प्यार, करुणा और मधुरता से उसे संतावना दी। उनकी प्यार और करूणा से वह कुछ देर के बाद उसे होश आया। होश आते ही, अब तक उसके साथ क्या हुआ था, सब कुछ याद आ गया। बुद्ध ने उसे इस जीवन के क्षण भंगुता का उपदेश दिया। जिसे सुनकर उसे उसके ज्ञान के चक्षु खुल गये। उसने अपने को भिक्षुणी संघ में शामिल करने के लिए प्रार्थना की। भगवान बुद्ध ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और उसे संघ में शामिल कर लिया। चूंकि, उसके नग्न शरीर को ढकने के लिए उसे एक शिष्या ने अपने वस्त्र से फाड़कर उसके शरीर को ढका था। इसलिए बाद में लोग उसे पटाचारा कह कर बुलाने लगे और इस तरह उसका नाम पटाचारा पड़ गया। इस तरह पटाचारा संघ में शामिल हुई और अपनी साधना से बहुत ही प्रबुद्ध भिक्षुणी बनी। वह संघ में विनय सूक्त धारकों में से प्रमुख जानी जाती है। पटाचारा अपने समय के उपाली के समतुल्य विनय धारकों में मानी जाती है।
इस तरह से हम देखते है कि भगवान बुद्ध की शिक्षा निराशा में आथा पैदा करती है और सत्य को स्वीकार करना सीखाती है। वेहोशी के जीवन से होश में लाती है। और जीवन में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करने का तरीका सिखाती है।
विसाखा
विसाखा का जन्म मगध राज्य में एक बहुत की अमीर परिवार में हुआ था। उसके पिता का नाम धनन्जय था। उसकी माता का नाम सुमन था। उसके दादा का नाम मेन्दाक था। वह एक खानदानी व्यापारी परिवार था। उसका बचपन भद्दया राज्य के साकेत शहर में में बीता। जब वह सात वर्ष की थी तभी उसने एक बार बुद्ध का धम्म सुना था। तभी से उसके हृदय में धर्म के बीज उग गये थे।
जब वह पंद्रह वर्ष की हुई तो वह बहुत ही खूबसूरत थीं। उसके साथ उसमे पाँच विशेष गुणों की धनी थी। एक दिन किसी बमण(निगाथ पंथ या अन्य पंथ) ने उसे देखा तो उसे सोचा- ऐसी पत्नि तो अपने मालिक पुन्नावदान की होनी चाहिए। पुन्नावदान भी एक खानदानी व्यापरी, मिगार का पुत्र था। वह बहुत ही धनी था। उसके पास सौकड़ों नौकर चाकर थे। जैसा कि हमने पढ़ा कि विशाखा पाँच गुणों से युक्त थी। वे गुण निम्न थे-
१–वह बहुत ही आकर्षक खूबसूरत थी।
२–उसके बाल बहुत ही खूबसूरत थे।
३–उसका शरीर की त्वचा बहुत मुलायम और सुनहरे रंग का बहुत ही आकर्षक थी।
४–उसके शरीर की बनावट लम्बाई और मोटाई भी बहुत खूबसूरत थी।
५– उसके व्यवहार बहुत ही उर्जावान भरा था।
दोनों परिवारों में बात-चीत हुई और उसका विवाह बहुत मान सम्मान के साथ मिगार के बेटे पुन्नावदान से हो गया। शादी के दिन उसके पिता ने उसे दस सलाह दिये। वे निम्न हैं।
१– पत्नि की अपने सास–ससुर या किसी दूसरे के सामने आलोचना नहीं करनी चाहिए। उनकी कमजोरियों या घर के झगड़े को किसी दूसरे चर्चा से नहीं करनी चाहिए।
२– एक पत्नि को किसी की मनगढ़त कहानियाँ नहीं सुननी चाहिए, नहीं दूसरे को भी सुनानी चाहिए।
३– अपनी चीजें उन लोगों को ही देनी चाहिए जो उनको लौटा दे।
४– उन लोगों को कोई भी ऐसी चीज नहीं देनी चाहिए जो ली हुई वस्तु एक बार लेने के बाद नहीं लौटाते।
५– मित्र और रिस्तेदार यदि गरीब भी हो, जो कि दी हुई चीजें लौटा नहीं सकते, तब भी उनकी मदद करनी चाहिए।
६– एक आदर्श पत्नि सम्मान से चलती और सम्मान से बैठती है। जब वह अपने पति या अपने सास-ससुर को जब देखे तो उनके सम्मान में खड़ा हो जाना चाहिए।
७– एक आदर्श पत्नि को खाना खाने से पहले, यह सुनिश्चत कर लेना चाहिए कि उसका पति या सास-ससुर ने खाना खा लिया है। उसे यह भी देखना चाहिए कि उसके यदि नौकर है तो उनका ठीक से उनका खयाल रखा जाता है कि नहीं।
८. सोने जाने से पहले एक पत्नी को यह देखना चाहिए कि सभी दरवाजे बंद हैं। फर्नीचर आदि सुरक्षित है। नौकरों ने अपने काम अच्छी तरह से कर लिया है या नहीं। सास–ससुर सोने चले गये है कि नहीं। एक पत्नी को सुबह जल्दी उठना चाहिए। यदि वह बीमार नहीं है तो उसे दिन में नहीं सोना चाहिए।
९. उसे सास–ससुर और पति से सावधानी से पेश आना जाना चाहिए
१०. उसे सास–ससुर और पति को सम्मान देना चाहिए।
विवाह के बाद, वह अपने पति के घर सावथी आयी। वह घर और शहर के सभी लोगों के प्रति दयालु और उदार थी। सभी उसे प्यार करते थे।
एक दिन की बात है; विसाखा का ससुर, मिगार अपने सोने के कटोरे में खीर रहा था। तभी एक भिक्षु, भिक्षा के लिए घर के दरवाजे पर आया। ससुर ने भिक्षु को देखा, लेकिन उसने भोजन करना जारी रखा जैसे कि उसने भिक्षु को देखा ही न हो। विशाखा वही पर खड़ा होकर अपने ससुर को पंखा कर रही थी। जब विसाखा ने अपने ससुर का यह व्यवहार देखा तो उसने बड़ी विनम्रता से भिक्षु से कहा, “आदरणीय महोदय, आप आगे बढ़ें। मेरे ससुर बासी भोजन कर रहे हैं।” मिगार, लम्बे समय से विसाखा से खुन्नस खाया हुआ था। क्योंकि, वह बुद्ध का अनुयायी और समर्थक थी, जबकि वह नहीं था। वह निगाथ पंथ को मानने वाला था और निगाथ का शिष्य था। वह अपने बेटे और विसाखा के बीच शादी तोड़ने का मौका ढूंढ रहा था। लेकिन उसका आचरण निर्दोषपूर्ण था। अब उसने इस बात पर अपना मौका देखा। विसाखा की बातों को गलत समझते हुए उसने सोचा कि यह उसके परिवार के लिए अपमान की बात है। मिगार आग बबूला हो गया और उसने तुरंत उसे घर छोड़ने के लिए कहा। उसने विसाखा को घर से बाहर निकालने का आदेश दिया। विसाखा ने कहा, “जब तक कि मेरा दोष सिद्ध न हो जाय, मैं कहीं नहीं जा रही हूँ”। उसने मिगार को अपने पिता के दिये गये वादे को याद दिलाया। उसने आठ धनी और अनुभवी रिस्तेदारों को इस मामले की जाँच के लिए बुलाया। जब वे विसाखा के घर आये और पूछ–ताछ किया और विसाखा को निर्दोष पाया। विसाखा ने समझाते हुए अपनी निर्दोषता साबित किया। उसने बताया कि मेरे ससुर ने भिक्षु की उपेक्षा की और अपना खीर खाना जारी रखा। उसके ससुर मिगार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा, “जब मैं अपने सोने के कटोरे में खीर खा रहा था तो विसाखा ने कहा कि मैं बासी खाना खा रहा हूँ। यह मेरा और मेरे परिवार का अपमान नहीं है तो और क्या है? मैं विसाखा को इस दोष के लिए उसे घर से बाहर निकालता हूँ।” इस पर विसाखा ने कहा, “मेरे ससुर सोने के कटोरे में आराम से स्वादिष्ठ खीर खा रहे थे। जो यह वर्तमान में खुशहाल जीवन जी रहे है वह उनके पूर्व के कुशल कर्मो का फल है। यह वर्तमान में कोई कुशल कर्म तो कर नहीं रहे है। इस तरह स्वादिष्ठ खाना या खीर खाने और सुख सुविधा का जीवन जीने को मैंने बासी खाना कह कर के संबोधित किया था। अब आप लोग ही बताइए कि मैंने ऐसा कहकर क्या गलत किया?” उन विद्वान और अनुभवी लोगों ने मिगार को समझाया और मिगार को यह बात समझ में आ गयी। उसके ससुर को यह स्वीकार करना पड़ा कि वह असभ्य होने का दोषी नहीं है। उसके बाद विसाखा ने कहा, “मुझे बुद्ध और उनकी शिक्षाओं मे पूर्ण विश्वास है। वह उस घर में बिल्कुल रहना नहीं पसंद करेगी जिस घर में भिक्षु और भिक्षुणियों का सम्मान नहीं होता हो। साथ ही उसने यह भी कहा कि अगर उसे भिक्षु और भिक्षुणियों को घर पर बुलाने और उन्हें दान देने कि इजाजत नहीं दी गयी तो वह बिल्कुल इस घर मे रहना पसंद नहीं करेगी। वह घर छोड़ देगी।” इस घटना के बाद उसे घर पर बुद्ध और उनके शिष्यों को धम्म की शिक्षा के लिए तथा दान देने की अनुमति दी गयी।
अगले दिन विसाखा ने बुद्ध और उनके शिष्यों को धम्म की शिक्षा के लिए, घर पर आमंत्रित किया। जब भिक्षुओं को पिण्ड दान देने का समय आया तो उसने अपने ससुर को उसमे शामिल होने के लिए सूचना भिजवाया। चूँकि मिगार निगाथ पंथ का अनुयायी था। उस दिन उसका गुरू भी अपने उपासक मिगार के पास आया हुआ था। वह और मिगार एक अलग कमरे में थे। सूचना मिलने पर भी उसका ससुर पिण्ड देने नहीं आया। जब भिक्षुओं ने खाना खा लिया तो एक बार फिर विसाखा ने अपने ससुर को यह सूचना भिजवाया कि जल्द ही बुद्ध अपना उपदेश देने वाले है, इसलिए जल्दी से आकर उनकी शिक्षा को सुने। उसके ससुर के दिल में यह बात उठी कि वह एक बार बुद्ध की शिक्षा को सुने। पर उसका गुरु उसे इजाजत नहीं दे रहा था। मिगार के बार–बार कहने पर, उसने अंत में बुद्ध का उपदेश एक पर्दे के पीछे छिपकर सुनने की आज्ञा दे दी। जब मिगार ने पर्दे के पीछे से धम्म को सुना तो उसे धम्म में सोतापन्न की अवस्था प्राप्त हो गयी। वह बुद्ध की शिक्षा सुनकर इतना प्रभावित हुआ कि उसने बुद्ध को उनकी शिक्षा के लिए धन्यवाद दिया। उसने अपनी बहु को बुद्ध की शिक्षा से अवगत कराने के लिए बहुत–बहुत धन्यवाद किया। वह अपनी बहु के प्रति इतना अभार प्रकट किया कि उसने यह घोषित किया कि विसाखा उसकी धर्म माता है। तब से विसाखा को मिगारमाता के नाम से भी जानते है।
समय के साथ विसाखा के पुत्र और पुत्रियाँ हुई और उनके भी पुत्र और पुत्रियाँ हुई। इस प्रकार उसे पुत्र–पुत्रियों और पोते–पोतियों का भी सुख मिला।
विसाखा के पास एक बहुत ही बहुमूल्य कोट था जिसमे हीरा जड़ा हुआ था। यह वस्त्र उसके पिता ने उसे उपहार के तौर उसके शादी के मौके पर दिया था। एक बार विसाखा अपने सहेलियों और नौकरानियों के साथ जेतवन विहार में गयी। कुछ समय के बाद उसे वह भारी जैसा लगने लगा। उसने उसे उतार कर शाल में लपेटा और बाँधकर अपने नौकरानी दे दिया। उससे कहा कि वह उसे सभाल कर रखे। लेकिन, वह नौकरानी उसे विहार में ही भूलकर चली आयी। आनंद की यह दिनचर्या था कि धर्म देशना के बाद वह विहार का निरीक्षण करता कि कोई कुछ अपना समान छोड़कर तो नहीं गया है। अगर उसे कोई समान मिलता तो उसे संभाल कर रखता। घर पहुँचकर विसाखा ने अपनी नौकरानी से जब पूछा तो पता चला कि वह कोट उस विहार में ही भूल गयी है। उसने तुरंत उसे विहार जाने के लिए भेजा। उसने नौकरानी को भेजते समय कहा, “यदि, उसे आनंद ने पाया होगा तो जरुर उसे संभाल कर रखा होगा। यदि ऐसा हुआ तो आनंद से कहना कि वह उसे अपने पास ही रखे। उसे मैंने दान के रुप में दे दिया है।” जब वह नौकरानी विहार आयी, और पूछा तो पता चला कि उसे आनंद ने संभाल कर रखा है। उसने अपने मालकिन का संदेश सुनाया कि उसे दान के रुप में आनंद स्वीकार करे। इस पर आनंद ने इंकार कर दिया। इस पर नौकरानी वस्त्र लेकर लौट आयी और सारी बात बतायी। इस पर विसाखा ने उसे बेचने का निर्णय किया और यह तय किया कि जो कुछ इसकी कीमत मिलेगी उसे विहार को दान कर देगी। उसने नीलामी लगवायी, पर वह अत्यंत महगाँ होने को कारण कोई नहीं खरीद रहा था। अंत में विसाखा ने उसे ९ करोड़ एक लाख रुपये में किसी तरह बेच पायी। उस पैसे से उसने शहर के पूर्व के इलाके में एक विहार का निर्माण कराया जिसे पुब्बाराम विहार के नाम से जाना जाता था। विसाखा धम्म की शिक्षा पाकर अपनी कड़ी साधना से, अपने दुःखों से मुक्त हुई। एक रात वह अपने परिवार के सभी लोगों को बुलाई और कहा कि अब उसकी सारी इक्षाएं पूरी हो गयी हैं। उसे अब कुछ और पाने की इक्षा नहीं है। वह यह कहकर अपने जोश में पाँच गाथाएं जोर–जोर से गाथा गाने लगी। गाथायें गाते-गाते वह विहार का परिक्रमा करने लगी। यह बात जब कुछ भिक्षुओं ने जब सुना तो यह बात उन्होंने बुद्ध को बताया। उन्होंने ने बताया कि इससे पहले भी उसने बुद्ध के उपदेश सुना है, पर इस तरह तो पहले कभी नहीं हुई। कहीं वह पागल तो नहीं हो गयी है। इस पर बुद्ध ने कहा– नहीं, ऐसा नहीं है। आज विसाखा की सारी इक्षाएं पूर्ण हो गयी है। इस सुख के उस स्तर पर पहुँची है कि वह खुश होकर वह गाथा गा रही है। उसने हमेशा से धर्म की सेवा की है।
विसाखा की मृत्यु, एक सौ बीस की आयु में परिपक्व अवस्था में गई।
अंगुलिमाल
अंगुलीमाल का जन्म एक बहुत ही अच्छे परिवार में हुआ था। उसके पिता राजा प्रसेनजिक के दरबार में किसी पद पर कार्यरत थे। उसका बचपन का नाम अहिंसक था। वह बहुत ही सज्जन और परिश्रमी लड़का था। उसकी पढ़ाई उस समय के बहुत की विख्यात विद्यालय में हो रही थी। वह पढ़ने में बड़ा ही मेधावी था। उसकी इस बात से उसके साथी जलते थे। इसलिए, उन्होंने उसके शिक्षक के कानों में उसके प्रति ईर्ष्या के बीज बोए। उन्होंने कहा कि अहिंसक का उसकी पत्नि से नाजायज संबंध है। इस पर उसके शिक्षक ने अहिंसक से छुटकारा पाने के लिए एक बहुत ही क्रूर योजना बनाई। उसके सहपाठियों के मिथ्या आरोप पर उसकी उनसे लड़ाई हो गयी और किसी एक सहपाठी की मृत्यु हो गयी। जब यह बात उसके शिक्षक को पता चली तो उसने कहा, “तुमने बहुत बड़ा पाप किया है। उसका प्रयाश्चित करने के लिए यदि वह एक हजार लोगों का हत्या कर उनकी अंगुलियों की माला भेटकर दो तो वह पाप से मुक्त हो जाएगा।” वह अपने गुरु की आज्ञा पालन करने के लिए वह लोगों की हत्या करने का सहारा लिया। वह लोगों को मारता और मरे हुए व्यक्ति के हाथ की एक उंगुली काट लेता। उनकी संख्या को याद रखने के लिए उसने कटी हुई उंगुलियों की एक माला बना कर अपने गले में पहने रखता। वह दिन में जंगलों में छिपा रहता और जब कोई उसे अकेले मिलता, उस पर आक्रमण करता था। वह युद्ध कला में बहुत माहिर व्यक्ति था। वह अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए गाँवों पर भी आक्रमण करता था। उसका आतंक कई गाँवों तक फैल गया था। राजा ने उसको पकड़ने के लिए कई बार अपने सैनिक भेजे, पर वह बच निकलता था। एक बार तो उसने सात सैनिकों को अकेले मार दिया और उनकी उंगलियाँ काटकर ले गया। उसके आतंक का खौफ चारों तरफ फैल गया था। उसके खौफ से लोग अपने को घरों में कैद कर रखते थे।
अंगुलिमाल जिस इलाके में रहता था, उस क्षेत्र में सैनिक भी जाने से डरता था। इसलिए राजा प्रसेनजीत ने उसे मारने के लिए अपनी सेना भेजी। उसके माला में ९९९ उंगुलियाँ हो गयी और बस एक की ही कमी रह गयी थी। जब उसकी माँ ने यह सुना कि राजा अपनी सेना के साथ खुद उसे मारने जा रहा है तो वह चिंतित हो गयी। अपने पुत्र मोह में उसको बचाने के लिए उस जंगल की तरफ चल दी।
उस समय भगवान बुद्ध जेतवन के विहार में ठहरे हुए थे। जब उन्होंने देखा कि अंगुलिमाल बहुत ही अकुशल कर्म किये जा रहा है और आज वह अपने माँ की भी हत्या कर देगा। माता-पिता की हत्या एक बहुत ही जघन्य अपराध है। एक बहुत बड़ा अकुशल कर्म है। बुद्ध उसे और ज्यादा अकुशल कर्मों से रोकने के लिए उस जंगल की दिशा में चल दिये जिस दिशा में अंगुलिमाल रहता था। वह जंगल में छिपा हुआ था। जब बुद्ध उस रास्ते पर जा रहे थे तो आस–पास के लोगों ने बुद्ध को उधर जाने के लिए मना किया। पर बुद्ध ने उनकी बात को अनसुना किया और उसी रास्ते को चुना। वह आराम से अपने कदमों के साथ जा रहे थे। उनका चित्त बिल्कुल शांत था। जब अंगुलिमाल ने यह देखा कि एक समण उस रास्ते पर बढ़ता ही जा रहा है तो उसने अपनी तलवार उठाई और उसकी तरफ दौड़ा। आज वह बहुत खुश भी हो रहा था कि आज उसकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो जाएगी, क्योंकि उसे बस एक ही मनुष्य के उंगुली की कमी था। वह अपनी पूरी ताकत से तलवार लेकर बुद्ध के पीछे दौड़ा। बुद्ध अपने आराम से कदमों के साथ जा रहे थे, पर उन्हें पकड़ नहीं सका। उसने पूरी ताकत से उनके पीछे दौड़ा, पर उनके करीब नहीं पहुँच सका। अंत में वह थक–हार गया। वह पसीने से लथपथ था और गुस्से में चिल्लया, “अरे! भिक्षु रुक जा।” उस पर बुद्ध ने बिना डरे हुए, बहुत ही करुणा और प्यार से कहा, “मैं तो कब का रुक गया हूँ। तू कब रुकेगा?” उसने खीजकर कहा कि, “तू झूठ बोल रहा है, समण?” इस पर बुद्ध ने कहा, “मैंने किसी की हत्या करना और मारना कब का छोड़ दिया है। यह तू ही है जो अब तक नहीं रुका है।” अंगुलिमाल, बुद्ध की इस बात से बिल्कुल आवाक रह गया। वह बुद्ध के शांत चित्त और करुणामय बातों से इतना प्रभावित हुआ कि उसने तुरंत अपने हथियार फेंक दिया। वह उसने चरणों में गिर पड़ा। उसे अपनी मूर्खता का एहसास हुआ। वह अपने अकुशल कर्मो के परिणाम से मुक्ति पाना चाहता था। उसने बुद्ध से अपने धम्म में शामिल करने की प्रार्थना की। बुद्ध ने उसकी यह प्रार्थना स्वीकार की और उसे अपना शिष्य के रुप मे स्वीकार किया। उसे विहार में ले जाकर उसका सिर मुडवाया और उसको संघ मे शामिल कर लिया।
कुछ समय बाद राजा प्रसेनजीत इस बात से अनजान अपनी सेना की टुकड़ी के साथ अंगुलीमाल को पकड़ने उस जंगल में जा रहा था। चूंकि, रास्ते में जेतवन विहार था तो उसने बुद्ध को अपना नमस्कार करने के लिए विहार आया, क्योंकि वह भगवान बुद्ध का एक उपासक था। वह बुद्ध को वह नमस्कार कर अपना उधर सेना के साथ आने का उद्देश्य बताया। इस पर बुद्ध ने कहा, “यदि राजा उसे एक भिक्षु के रुप में पा जाए तो उसके साथ क्या करेगें?” इस पर प्रसेनजीत ने कहा, “पहली बात कि वह इतना निर्दयी और क्रूर डाकू कभी भिक्षु बन ही नहीं सकता। यह तो बिल्कुल अविश्वास की बात है और यदि ऐसा हुआ तो मैं उसे नमस्कार करूँगा।” तब भगवान बुद्ध ने अपने एक हाथ से एक तरफ इशारा किया जहाँ पर अंगुलीमाल बिल्कुल शांत भिक्षु के रुप में बैठा था। राजा को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि अंगुलिमाल जैसा खूंखार व्यक्ति बुद्ध का शिष्य बन जाएगा। उसने अपने हाथ जोड़कर अंगुलीमाल को नमस्कार किया और बुद्ध से बोला, “भगवान् बुद्ध, जो काम हमारी सेना हथियारों से भी नहीं कर सकी, उसे आप ने बिना हथियार से ही बस में कर लिया।”
अंगुलीमाल अपने परिश्रम और अथक प्रयास से अपने मन को शुद्ध कर पाया। वह लालच, द्वेष, ईर्ष्या क्रोध आदि मलिन विचारों से अपने आपको मुक्त कर पाया। उसे कुछ समय में उसे बोधि की प्राप्ति हुई।
अंगुलीमाल की यह गाथा इस बात को बतलाती है कि व्यक्ति ने चाहे कितने भी अज्ञानता में जघन्य अपराध किया हो, जब वह शुद्ध धम्म को अपनाता है तो उसका जीवन बदल ही जाता है। वह अपने पाप कर्मो से मुक्त हो जाता है और उसे बोधि की प्राप्ति होती है।
किसा गौतमी
किसा गौतमी सावथी के एक बहुत बड़े व्यापारी की पत्नि थी। विवाह के कई वर्षो के बाद उसने एक पुत्र को जन्म दिया। वह अपने पुत्र से बहुत प्यार करती थी। अभी वह कुछ की दिन का था कि उसकी मृत्यु हो गयी। पुत्र की मृत्यु से वह इतना व्याकुल हो गयी कि उसके शरीर का अंतिम संस्कार करने नहीं दे रहीं थी। वह अपना होश खो बैठी थी। वह अपने मृत बेटे का शरीर गोद में लेकर गाँव मे घूमते हुए कहती- देखो मेरा पुत्र मरा नहीं है। अरे! यह तो सो रहा है। जब लोगों ने समझाया कि उसका लड़का मर गया है, तो पागल हो गयी। वह अपने लड़को को दाह संस्कार के लिए तैयार नहीं हो रही थी। उसकी हालत पर तरस खाकर गाँव के कुछ लोगों ने उसे बुद्ध के पास भेजा। उन्होंने ने कहा कि बुद्ध बहुत चमत्कारी पुरुष हैं। वह तुम्हारे पुत्र को जीवीत कर सकते है।
किसा गौतमी अपने पुत्र को लेकर भगवान बुद्ध के पास जाती है। वह बुद्ध के पास इस आस में जाती है कि बुद्ध उसके पुत्र को जीवीत कर देगे और वह तुरंत उठ बैठेगा। जिस समय किसा गौतमी बुद्ध के पास जाती है उस समय वह अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। वह भगवान बुद्ध से अपने पुत्र को जीवीत करने के लिए प्रार्थना करती है। बुद्ध उसकी मानसिक स्तिथि को देखकर ऐसी युक्ति का प्रयोग किया जिससे वह सत्य को जाने। बुद्ध ने कहा, “मैं तुम्हारे पुत्र को जीवत कर दूँगा। इसके लिए गाँव के किसी एक घर से एक मुट्ठी सरसो लाओ।” वह तुरंत उठी और खुशी–खुशी जाने लगी। बुद्ध ने उसे रोकते हुए कहा, “ठहरो! मेरी पूरी बात सुनो। तुम्हें सरसो उस घर से लाना है जिसके घर में अभी तक कोई नहीं मरा हो।” यह सुनकर वह बहुत खुश हुई और फौरन गाँव की तरफ सरसो लाने चल दी।
गाँव में जाकर घर–घर दरवाजा खटखटाती और उसने एक मुटठी सरसों की माँग करती। हर घर का व्यक्ति उसकी मदद करने के लिए तैयार था। वे उसे सरसों देने के लिए तैयार थे, पर जब वह पूछती कि क्या आपने अपने प्रियजनों को खोया है? तो हर घर से यही जबाव मिलता है, “हाँ, हमने दादा खोया, हमने दादी खोयी। हमने पिता खोया, हमने माँ खोया। हमने बहन खोया, हमने भाई खोया। हमने बेटा खोया, हमने अपनी बेटी खोये। हमने आना पोता खोया, हमने अपनी पोती खोयी है।” उसे पूरे गाँव में एक भी व्यक्ति नहीं मिला जिसने अपने प्रियजनों को नहीं खोया हो। कई तो ऐसे घर थे जिसमें मरने वालो की संख्या जीवीत लोगों से भी ज्यादा थी। अब उसे यह बात समझ में आ गयी कि दुःख सबको होता है। वह अकेली नहीं है जिसको यह दुःख मिल रहा है। उसे अंत में इस बात का ज्ञान हुआ कि इस संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसने अपने प्रियजनों को नहीं खोया हो। मृत्यु जीवन का एक सत्य है उसे मालूम हुआ। किसा गौतमी को ज्ञान का बोध हुआ तो वह बिल्कुल शांत हो गयी। उसने अपने पुत्र का अंतिम संस्कार किया।
इस तरह बुद्ध की शिक्षा संसार की सच्चाई को स्वीकार करना सीखाती है। किसी भ्रम मे रहना नहीं सीखाती।
अनाथ पिण्डक
राजा प्रसेनजीत के राज्य में उत्तर भारत के सावथी में एक बहुत ही धनवान व्याति रहता था। उसका नाम अनाथ पिण्डक था। उसका व्यापार कई राज्यों में फैला हुआ था। वह बहुत ही उदार था। वह गरीब और अनाथ लोगों को भोजन, वस्त्र और दवाएं आदि आवश्यकता की चीजें दिया करता था। इसलिए लोग उसे अनाथ पिण्डक कहा करते थे या बुलाते थे। उसका असली नाम सुदाता था।
एक समय की बात है कि आनाथ पिण्डक अपने व्यापार के सिलसिले में राजग्रह आया। राजग्रह में ही उसके बहनोई का घर था। उनकी आपस में बहुत बनती थी। जब भी अनाथ पिण्डक राजग्रह आता, उसका खुले दिल से प्रसन्नता पूर्वक स्वागत होता। इस बार जब अनाथ पिण्डक राजग्रह अपने बहनोई से मिलने गया तो देखा कि परिवार के सभी लोग किसी बड़ी उत्सव जैसी तैयारी में लगे हुए थे। उसे लगा हो सकता है उससे मिलने कोई राजा आ रहा हो या किसी बड़ी शादी या बली चढ़ाने की तैयारी चल रही हो। उसका किसी ने ध्यान नहीं दिया। इससे पहले उसके साथ ऐसा कभी नहीं हुआ था। जब उसने अपने बहनोई से इसके बारे में पूछा तो उसे पता चला कि अगले दिन भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के साथ उसके घर भोजन करने वाले है। उसने उनको भोजन के लिए बुलाया है।
अनाथ पिण्डक ने जब अपने बहनोई से बुद्ध का नाम सुना तो बुद्ध का नाम सुनते ही आश्चर्य चकित रह गया। उसने दुबारा पूछा, “क्या भगवान बुद्ध कल सचमुच आ रहे है? ऐसा उसने तीन बार पूछा। बुद्ध का नाम इतना उसे प्रभावशाली लगा कि उसे लगा कि ऐसा दूसरा कोई नहीं है। उसने अपने बहनोई से पूछा, “क्या मैं सचमुच भगवान बुद्ध को अपनी आखों से देख सकता हूँ? बहनोई ने कहा, “हा, सचमुच कल देख सकते हो।
अनाथ पिण्डक उस रात को सोने के लिए विस्तर पर लेटा। उसके मन के अंदर हजारों तरह के विचार चल रहे थे। उसे नींद नहीं आ रही थी। वह सोने की बहुत कोशिश किया, पर रात में तीन बार उसकी नींद खुल गयी। रात अभी काफी बचा थी तो उसे लगा कि सुबह होने वाली है। उसके मन में भगवान बुद्ध से मिलने की तीक्ष्ण इक्षा छाये हुई थी। वह भगवान बुद्ध से मिलने उठ कर नगर के बाहर मठ की तरफ चल दिया। जब वह घर से बाहर निकला तो बाहर बहुत ज्यादा अंधेरा था। रास्ता में बिल्कुल सन्नाटा था। रास्ते में उसे बहुत तरह के डरावने खयाल आ रहे थे। कभी उसका मन कर रहा था कि वह घर लौट जाये, पर उसकी मन में भगवान बुद्ध से मिलने की तीव्र इक्षा ने विजय पायी और मठ की तरफ बढ़ता गया। वह काफी समय तक चलता रहा और मठ के द्वार तक पहुँच गया। वहाँ पर अँधेरे में एक आकृति आगे-पीछे चलते दिखाई दी। उसे देखकर अनाथ पिण्डक वही रूक गया। इस पर उस आकृति ने बहुत ही मधुर शब्दों में आवाज दी, “आओ सुदाता, आओ।”
अपना असली नाम सुनकर अनाथ पिण्डक बहुत ही आश्चर्य चकित हुआ। उसका यह नाम राजग्रह में कोई नहीं जानता था। नहीं इससे पहले वह कभी बुद्ध से मिला था। अपना इस तरह का असली नाम सुनकर उसे बुद्ध की महानता का अनुभव हुआ। वह भाव विभोर होकर बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा। वह अपने टूटते-फूटते आश्चर्य चकित शब्दों में उनका हाल पूछा। कुछ देर तक सामन्य बात-चीत के बाद, उसने लोक और परलोक की बातें पूछना शुरू किया। बुद्ध ने बताया कि अरहत सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त होता है। उसके बाद वह क्रमशः सद्गुणों, सकुशल कर्मों, आदि के बारें में बताया। धम्म की दीक्षा लेने से क्या फायदे है। इसके बारे में बताया।
कुछ समय तक क्रमशः समझाने के बाद जब बुद्ध ने देखा कि सुदाता का मन और हृदय शांत और सत्य समझने योग्य हो गया है तो उन्होंने उसे चार अरिय सत्यों के बारें में बताया। दुःख, दुःख का कारण, दुःख का निवारण, निवारण का मार्ग। जो कुछ बनी है वह नष्ट भी होगी। अनाथ पिण्डक इस उपदेश को सुनते, सुनते सोत्पन्न हो गया। अनाथ पिण्डक की ज्ञान की आँखे खुल गयी।
धम्म उपदेश सुनने के बाद अनाथ पिण्डक ने भगवान बुद्ध और उनके शिष्यों को अपने बहनोई के घर खाने पर बुलाया। बुद्ध और उनके शिष्यों के भोजन ग्रहण करने के बाद उसने पूछा, “भगवान, क्या मैं अपने नगर सावथी में संघ के लिए कोई स्थानीय निवास बनवा सकता हूँ? भगवान बुद्ध, उसकी बात को समझ गये और कहा, “बुद्ध को शांत जगह पसंद है।” इस पर अनाथ पिण्डक ने कहा, मैं समझ गया, भगवान। उसका यह प्रस्ताव स्वीकार होने के कारण उसके खुशी का कोई ठिकाना नहीं था।
सुदाता भगवान बुद्ध से उपदेश सुनने के बाद, धम्म कितना कल्याणकरी है, उसके महत्व को समझा। यह सबके लिए कल्याणकारी है। यह लोगों को सबल और सक्षम बनाता है। लोगों के बुद्धिमान बनाता है। इसके पा लेने से मनुष्य को बाकी चीजें खुद–बखुद प्राप्त कर लेता है। उसने सोचा– मैं जरुरतमंद लोगों को खाना खिलाता हूँ, वह कुछ समय के बाद पुनः भूखा हो जाता है। प्यासे को पानी पीलाता हूँ, वह कुछ समय के बाद फिर प्यासा हो जाता है। नंगे को कपड़ा देता हूँ, कुछ समय बाद उसके कपड़े फिर चिथड़े हो जाते है। उसे फिर कपड़े की आवश्यकता होती है। मैं बिमार को दवा देता हूँ, वह ठीक तो होता है। परंतु कुछ समय बाद, वह फिर किसी न किसी बिमारी से पीड़ीत हो जाता है। कितना अच्छा होगा यदि मैं उनको धम्म दे दूँ तो वे अपने दुःखों से खुद ही बाहर निकल जाएगें। धम्म दान में सहायक बनकर उनको आत्म निर्भर बना दूँ तो इससे उनका सबसे बड़ा कल्याण होगा। यह दान देने से ज्यादा कल्याणकारी है। मैं अपने तरफ से कितना भी इन्हे धन दे दूँ, उनका उतना कल्याण नहीं होगा जितना की यह धम्म उनका कल्याण करेगा। इसलिए, धम्म का दान सबसे कल्याणकारी है।
जब वह राजग्रह से सावथी लौट रहा था तब वह रास्ते में लोगों को बुद्ध और उसके संघ को खुले दिल से स्वागत् करने की अपील कर रहा था। ऐसा पूरे रास्ते लोगों को प्रोत्साहित करते हुए वह राजग्रह से सावथी तक पहुँचा। अपने नगर पहुँच कर एक उपयुक्त स्थान की तालाश करने लगा। शहर के बीचो–बीच भी विपस्सना हाल नहीं बनाया जा सकता था, क्योंकि शहर में शोर–गुल ज्यादा होता जो कि मेडिटेशन के लिए उपयुक्त जगह नहीं है। शहर से ज्याद दूर भी स्थान ठीक नहीं जहाँ कि लोग धम्म को सीखने नहीं आ सके। वह इस तरह से एक ऐसे शांत और सुंदर जगह की तालाश कर रहा था जो नहीं शहर से ज्यादा दूर हो। जिससे लोग वहाँ आसानी से पहुँच सके। वह घूमते–घूमते एक ऐसे जगह पर पहुँचा जहाँ एक सुदर बहुत बड़ा बगीचा था। उसमे तरह–तरह के फूल और छायादार वृक्ष लगे थे। वह शहर से ज्यादा दूर नहीं था। वह एक ऐसा स्थान पर था जो मेडिटेशन के लिए बहुत ही अच्छा जगह था। उसने आस–पास के लोगों से पूछ–ताछ किया कि उस बाग का मालिक कौन है। पूछने पर उसे पता चला कि सम्राट प्रसेनजीत का लड़का यानि राजकुमार उसका मालिक था। उस राजकुमार का नाम जेत था। वह राजकुमार कुमार जेत के पास गया। अनाथपिण्डक ने उसे नमस्कार कर कहा, “ श्रीमान् मैं आपका बाग खरीदना चाहता हूँ।” यह सुनकर राजकुमार जेत ने तुरंत मना कर दिया और कहा कि उसे बेचना नहीं है। क्योंकि, यह खूबशूरत पार्क उसके पिता ने उसके जन्मदिन पर उपहार के रुप में दिया था। वह उसकी बहुत ही प्रिय संपत्ति थी। दूसरी बार अनाथ पिण्ड ने कहा, “श्रीमान्, मुझे इस पार्क की बहुत जरुरत है। इस लिए कृपया मेरा प्रस्ताव पर विचार करें।” प्रिंस ने मना कर दिया कि मैं इस पार्क को बेचना नहीं चाहता। यह पार्क मेरे लिए व्यक्तिगत पार्क है और इसे अपने विहार के लिए उपयोग करता हूँ। इसलिए मैं इसे नहीं बेचूगां। इस पर अनाथ पिण्डक ने तीसरी बार कहा, “श्रीमान् जी मैं इसे खरीदना चाहता हूँ।” इस पर प्रिंस बहुत गुस्सा हुआ। उसने मना किया कि, “मैं इस बाग को बिल्कुल नहीं बेचूगां। वह उसका और अपना समय नष्ट न करे।” इस पर अनाथ पिण्डक ने प्रार्थना करते हुए बड़े प्यार से कहा, “ श्रीमान् जी मैं इस पार्क को किसी भी कीमत पर खरीदना ही चाहता हूँ। कीमत आप चाहे जो भी माँग ले। मैं उसे देने के लिए तैयार हूँ।” राजकुमार ने इस जिद्दी अनाथपिण्डक से छुटकारा पाने के लिए कहा, “क्या तुम इस पार्क की कीमत चुका सकते हो? अगर तुम इसे खरीदना चाहते हो तो इस पार्क की जमीन पर जितना सोना बिछा दोगे वह जमीन तुम्हारी हो जाएगी। यह इस जमीन की कीमत है।” राजकुमार के इस प्रस्ताव से अनाथ पिण्डक ने खुशी–खुशी स्वीकार किया। वह बड़े ही आनंनदित होकर अपने घर के लिए चल दिया। वह घर पहुँच कर तुरंत गाड़ियों में भरकर सोने की मुहरे मँगवाई और उसे बाग ही जमीन पर बिछवाना शुरु किया। राजकुमार को जब यह बात पता चली तो वह तुरंत उसके पास आया। उसने देखा– अनाथ पिण्डक अपने नौकरों के साथ जमीन पर सोने के सिक्के बिछा रहा है। राजकुमार ने अनाथपिण्डका के पास आकर कहा, “क्या तुम पागल हो गये हो? कोई भी जमीन इतनी मँहगी नहीं हो सकती।” अनाथ पिण्डक ने कहा, “नहीं श्रीमान्, मैं पूरे होश में काम कर रहा हूँ। यह जगह ऐसे काम के लिए प्रयोग मे लायी जाएगी जहाँ पर बुद्ध आकर लोगों को धम्म की शिक्षा देगे। वह विपस्सना सिखाएगें। और यह धन उस धम्म की तुलना में कुछ भी नहीं है। इससे हजारों लाखों लोगों का फायदा होगा। मैं यहाँ दस हजार लोगों की क्षमता विपस्सना केंद्र बनवाऊगा। जहाँ पर हजारों लोग धम्म सीखकर अपना और लोगों का कल्याण दोनों करेगे।”
दान देने की प्रथा पहले भी थी। यह भारत की बहुत पुरानी परम्परा रहीं है। दान देने का उद्देश्य लोगों के कल्याण के लिए था। अपने मान सम्मान के लिए दिया।
धम्म में जो व्यक्ति है या पालन करता है या राह पर चलता है तो इसका मतलब यह नहीं कि उसे दुख नहीं आता। आता है, पर वह उसका डटकर मुकाबला करता है। उसे पता होता है कि समय हमेशा बदलता सहता है। वह अपने परिश्रम और विवेक से अपने जीवन की चुनौतियों का सामना कर उन पर विजय प्राप्त करता है। जीवन में उतार चढ़ाव आते रहते हैं। इससे वह घबराता नहीं है। यही बात अनाथ पिण्डक के साथ हुआ। कुछ समय के बाद भूत के अकुशल कर्मो के कारण एक समय ऐसा आया कि वहीं अनाथ पिण्डक एक भिखारी की तरह बिल्कुल गरीब हो गया। उसके पास बिल्कुल पैसा नहीं था। जब उसके पास पैसा था तो वह रोज विपस्सना केन्द्र आता था। वह सुबह और शाम दोनों समय आता था। उसे पता था कि मैं एक गृहस्थ हूँ इसलिए मुझे विपस्सना केन्द्र पर खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। इसलिए, वह जब भी जाता कुछ न कुछ लेकर जाता। जब वह गरीब हो गया तो उसके पास पैसा बिल्कुल नहीं था। उसने सोचा कि अब वह क्या दे सकता है। उसने देखा के उसके घर के बाहर उसके छोटे से बगीचे में उर्वकरक से भरी खाद है। तो वह एक पोटली में भरकर जेत वन में आया और पेड़ के जड़ों में डालकर यह मनोंकामना करता कि, “इस उर्वरक से यह वृक्ष स्वस्थ और खूब बड़ा होकर एक विशाल छायादार वृक्ष बने और कोई साधक इस वृक्ष की छाया में बैठकर धम्म ग्रहण करे।” यह उसकी कल्याणकारी भावना यह थी कि जो भी मैं दू इससे जन कल्याण हो।
अनाथ पिण्डक धम्म में पक गया था। वह धम्म को बहुत अच्छी तरह समझता था। वह जानता था कि सही भावना से कोई काम किया जाय तो प्रकृति का नियम है कि उसके गुणात्मक रुप मे फल देती है। ऐसा धम्म का नियम है। इसलिए, सकुशल चित्त से किया दान चाहे एक पैसा हो या लाखों उसमे कोई अंतर नहीं है। दोनों के बराबर फल मिलते है। कुछ समय बाद वह पुनः पहले से भी ज्यादा बड़ा धनवान व्यापारी हो गया।
पराकृति
एक दिन आनंद भिक्षा माँगने बाद जब वह मठ लौट रहा था तो उसे प्यास लगी। जिस रास्ते से आनंद लौट रहा था उस रास्ते से थोड़ी दूर पर एक कुआँ दिखाई दिया। आनंद पानी पीने उस कुएं पर पहुँचा। उस समय, उस कुएं पर एक बहुत ही खूबसूरत लड़की पानी भर रह रही थी। आनंद को देखते ही वह तुरंत अपना मुँह ढँक कर दूर हो ली। आनंद ने कहा, “मुझे प्यास लगी है। क्या मुझे पानी पीला सकती हो?” यह सुनकर लड़की सहम गयी और अपनी हिम्मत बटोर कर बोली, “पूज्यनीय, मै एक चंडाल की बेटी हूँ, और आप एक सत्पुरुष। मैं आपको पानी पीलाकर आपको अपवित्र नहीं करना चाहती। इस पर आनंद ने कहा, “मैंने पानी माँगा है, तुम्हारी कुल नहीं पूछा है। कृपया मुझसे मत डरो। मुझे तुम्हारे हाथों से पानी पीकर बहुत खुशी होगी।”
प्राकृति एक निम्नकुल कन्या थी। उन दिनों की समाजिक व्यवस्था में मातांग गोत्र से थी जो कि निम्न कुल(दास कुल) माना जाता था। ऊँचे कुल के लोग इस गोत्र से पानी पीना पसंद नहीं करते थे। जब आनंद ने उसे पानी माँगा तो उसे अपने आप को जीवीत होने का अहसास हुआ। उसे अपने जीवन का महत्व समझ में आया। वह अपने आप को अन्य ऊँचे कुल के लोगों से भिन्न नहीं पाती। निम्न कुल का जीवन जीते हुए मानव होने का कभी उसे अहसास ही नहीं हुआ। लेकिन, आनंद जैसे सत्पुरुष ने, पुन्य पुरुष ने उसके हाथ का पानी पीकर उसका यह भ्रम तोड़ दिया। उसे भी अपने मानव होने का अहसास हुआ और उसमें एक नया व्यक्ति का जन्म हुआ। वह अब बहुत खुश थी।
प्राकृति को आनंद की प्यार की बात उसके दिल को छू गयी। आनंद देखने में राजकुमार की तरह सुंदर था। वह आनंद को अपना दिल दे बैठी। जब वह घर लौटी तो उसकी हालत बिल्कुल बदल चुकी थी। उसके अंदर एक आत्म सम्मान आ जाग चुका था। वह रात को सो नहीं सकी। वह प्रतिदिन इस आशा से उस कुँए पर प्रतीक्षा करती कि आनंद जब इस रास्ते से होकर कभी गुजरेगा तो उसकी एक झलक मिल जाएगी। वह आनंद के शरीर और मन दोनों से प्यार करती थी। उसे आनंद का चलना, बोलना और बातें करना सब उसे पसंद था। उसने अपनी माँ से प्रार्थना की कि वह आनंद को अपने घर भोजन के लिए बुलाए। उसकी माँ ने बेटी के कहने पर उसे दो बार खाने पर बुलाया। जब उसकी माँ को पता चला कि उसकी बेटी आनंद को अपना दिल दे बैठी है तो उसने उसे बहुत समझाया, पर वह नहीं समझी। उसने माँ से कहा, “अगर उसे आनंद नहीं मिलेगा, तो वह मर जाएगी।” वह अपनी बेटी को खोना नहीं चाहती थी, पर वह यह भी जानती थी कि आनंद भिक्षु को जीवन छोड़कर क्यों उसकी बेटी से शादी करेगा? उसे गृहस्थ बनाना आसान काम नहीं है। पर उसने अपनी बेटी की ऐसी हालत जानकर उसे एक ऐसी पेय तैयार किया जिसके पीने से पुरुष में काम शक्ति जाग्रति होती है। उसकी माँ मातांग गोत्र से थी। इस तरह के नुक्खे बनाने में उसे महारथ हाशिल थी।
अगले दिन प्राकृति सुबह तड़के उठकर जिस रास्ते से आनंद भिक्षा माँगने नगर में जाता था, उस रास्ते में खड़ा होकर आनंद की प्रतीक्षा करने लगी। जब आनंद से उसकी मुलाकात हुई तो उसने अपने घर निमंत्रण पर आने की प्रार्थना की। आनंद चाहता था कि इस अवसर पर वह धम्म की शिक्षा प्राकृति और उसकी माँ को भी दे सकेगा ताकि वे मुक्ति का जीवन जीये। जैसे ही आनंद घर पर पहुँचा, उसे पहले वह औषधि का पेय पीने के लिए दिया गया। पेय पीने के कुछ ही देर में औषधि ने अपना असर दिखाया और आनंद का दिमाग हवा में तैरने लगा। उनके हाथ पाँव शिथिल हो गये और अपना नियंत्रण खोने लगा। तब उन्हें पेय में कुछ मिला होने का अहसास हुआ। उन्होंने तुरंत बैठकर अना–पान के द्वारा अपनी साँस पर नियत्रण किया और उस औषधि के प्रभाव को नष्ट किया।
उधर जब आनंद को मठ लौटने में बहुत देर हो गयी तो बुद्ध ने अपने कुछ शिष्यों को आनंद को लेने भेजे। वे ढूँढ़ते–ढूढ़ते उसे प्राकृति के झोपड़ी में पहुँचे जहाँ आनंद को कमल मुद्रा में ध्यान करते हुए पाया। फिर वे आनंद को अपने साथ मठ लेकर लौट आए। इस घटना के बाद अगले दिन, प्राकृति अपनी माँ के साथ मठ पहुँची। उस समय बुद्ध एक ऊँचे आसन पर बैठ भिक्षुओं को शिक्षा दे रहे थे। माँ ने झुककर बुद्ध को नमन् किया और सारी बात बताई। यह सुनकर बुद्ध ने प्राकृति से कुछ प्रश्न पूछे–
बुद्ध– क्या तुम आनंद को प्यार करती हो?
प्राकृति– हाँ, मैं आनंद को पूरे दिलो–जान से प्यार करती हूँ।
बुद्ध– ठीक है। पर, आनंद में तुम्हें क्या चीज अच्छी लगती है? क्या उसकी आँखें अच्छी लगती है? या उसकी नाक अच्छी लगती है या उसके मुँह अच्छे लगते है?
प्राकृति– मुझे आनंद की हर चीज अच्छी लगती है। उनका दिल बहुत ही अच्छा है। उनकी आँखें, उनकी नाक, उनके कान, उनके होठ उनकी बातें। उनका चलना फिरना उठना बैठना मुझे सबकुछ पसंद आता है, भगवान।
बुद्ध– ये आँखे, नाक, मुँह आवाज, और चाल के अलावा आनंद की बहुत सी खुबियाँ है जो मुझे बहुत अच्छी लगती है जिसे शायद तुम नहीं जानती हो?
प्राकृति– और वे खुबियाँ क्या–क्या है, भगवान?
बुद्ध– तुमने कहा कि आनंद का दिल बहुत पसंद है। क्या तुमको मालूम है कि आनंद के दिल को क्या पसंद है?
प्राकृति– भगवान, मैं नहीं जानती कि आनंद को क्या चीज पसंद है। बस, इतना जानती हूँ कि आंदन को मुझे प्यार नहीं करते।
बुद्ध– तुम्हें गलतफहमी है कि आनंद तुम्हें पसंद नहीं करते। आनंद तुमको प्यार करते है, पर उस तरह से नहीं जिस तरह से तुम उसे प्यार करती हो। आनंद को मुक्ति, स्वतंत्रता, शांति और आनंद का मार्ग पसंद है। वह अन्य प्राणियों से भी बहुत प्यार करता है। वह अपनी तरह उन्हें भी मुक्ति, स्वतंत्रता, शांति और आनंद का एहशास दिलाना चाहता है। प्राकृति, आनंद का प्यार निःस्वार्थ है। वह किसी शर्त के अधीन नहीं है या अधारित है। आनंद मुक्त अवस्था का जीवन जीता है। उसे दुःख और निराशा नहीं होती जैसा कि तुम्हारे प्यार करने के तरीके में है। यदि तुम सचमुच आनंद से प्यार करती हो तो तुम आनंद को उसके चुने हुए मार्ग पर चलने दोगी।
आम्रपाली
आम्रपाली का जन्म ईशा ५०० से ६०० के बीच माना जाता है। उसके माता–पिता के बारे में जानकरी उपलब्ध नहीं है। वह वैशाली के राजशाही बाग में दो आम के पेड़ों की बीच में महामना नाम के एक व्यक्ति को मिली थी। चूंकि वह आम के पेड़ों के नीचे मिली थी इसलिए, उसका नाम आम्रपाली रखा गया। उसे पाली में आम्बपाल या अम्बापाली भी कहते है जिसका मतलब होता है आम के पत्ते।
आम्रपाली बहुत ही खूबसूरत लड़की थी। जैसे–जैसे वह बड़ी हुई उसकी खूबसूरती बढ़ती गयी। वह अपने इलाके की इतनी खूबसूरत लड़की थी कि जब वह मात्र ११ वर्ष की थी तभी उसे पूरे वैशाली की सबसे खूबसूरत कन्या घोषित कर दिया गया। जब वह जवान हो गयी तो उसकी खूबसूरती के प्रभावित होकर बहुत से राजकुमार और धनी उससे अपना शादी का प्रस्ताव लेकर आए। उसमें से ज्यादातर वैशाली गणराज्य के राजकुमार थे। उसको पाने के लिए वे आपस में युद्ध के लिए तैयार हो गये। वैशाली उस समय भारत का सबसे प्राचीन गणराज्य था। उसकी एक विधान सभा थी और राजा को लोग अपना मत देकर उसका चुनाव करते थे। गणराज्य के राजा आपस में लड़ने न लगे तथा गणराज्य की अखण्डता बनाए रखने के लिए उन्होंने एक बैठक बुलायी और उस पर चर्चा हुई। सभी ने अपना–अपना मत रखा। बहुत लम्बी बैठक के बाद वैशाली की अखण्डता बरकार रखने के लिए सभी ने एक मत से एक प्रस्ताव पारित किया कि वह किसी एक राजा की पत्नि नहीं बनेगी। वह सभी राजाओं की इक्षा पूर्ति के लिए नगर वधु(वेष्या) का काम करेगी। इस तरह उसे वैशाली गणराज्य का नगरबधु घोषित कर दिया गया। वह धनवान व्यक्तियों और राजाओं के लिए शारीरिक सुख का साधन बन गयी थी। सभी ने उस पर अपार धन लुटाए। ऐसा कहा जाता है कि वह बहुत ही अच्छा संगीतज्ञ और गाती भी थी।
उस समय मगध का राजा बिम्बसार था। उसकी वैशाली गणराज्य के शत्रुता थी। जब आम्रपाली की खूबसूरती की चर्चा उसके कानों तक पहुँची तो उसे अपनी पटरानी बनाने के लिए सोचा। वह एक योजना बनाकर आम्रपाली के निवास पर भेष बदलकर आया और उसका नृत्य देखा। उसकी खूबसूरती पर मोहित हो गया। उसने अपने आने का कारण बताया। कहते हैं कि आम्रपाली भी उससे प्यार कर बैठी थी। आम्रपाली यह बात अच्छी तरह जानती थी कि अगर वह बिम्बीसार के इस प्रस्ताव को स्वीकार करती है तो वैशाली और मगध में युद्ध होना तय है। क्योंकि, वैशाली गणराज्य भी बहुत बड़ा शाक्तिशाली था। उसकी वजह से लोगों का जीवन न खोना पड़े, इसलिए उसने बिम्बीसार के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। आम्रपाली के ठुकाये जाने पर बिम्बीसार अपने राज्य लौट आया। बाद में उसका पुत्र अजातशत्रु जब मगध की गद्दी पर बैठा तो वह भी उसकी खूबसूरती पर मोहित हुआ और उसे अपनी पटरानी बनाना चाहता था।
आम्रपाली की खूबसूरती ही उसके दुःखों का कारण बन गयी थी। उसके पास धन–दौलत की कमी नहीं थी, पर वह अपने जीवन से खुश नहीं थी।
एक बार भगवान बुद्ध वैशाली में ठहरे हुए थे। बुद्ध वैशाली में अक्कसर अपनी धर्म शिक्षा के देने के लिए अपने शिष्यों के साथ आते–जाते रहते थे। आम्रपाली ने भगवान बुद्ध और उनकी शिक्षाओं के बारें में लोगों से सुन रखा था। एक दिन की बात है; वह अपने महल के खिड़की के सामने खड़ी होकर बाहर देख रही थी। तभी वह एक भिक्षु गली में जाते देखा। उसकी चाल बहुत ही शांत और संयमित थी। उसका इस तरह व्यक्तित्व देखकर वह बहुत ही प्रभावित हुई। कुछ लोगों का मानना है कि वह अपना दिल दे बैठी। उसने बुद्ध की शिक्षा और उनके शिष्यों की परीक्षा लेने को सोचा। वह अपने महल से बाहर निकली। भिक्षु जिस रास्ते से जा रहा था, वह उसके पीछे–पीछे चलने लगी। कुछ समय के बाद भिक्षु विश्राम के लिए एक पेड़ के छाँव में बैठ गया। वह भी उसके साथ बैठ गयी। उसने भिक्षु से प्रश्न किया– आपने युवा अवस्था में भिक्षु का जीवन जीना क्यों चुना?
भिक्षु– सत्य की खोज में।
आम्रपाली– उस सत्य का क्या लाभ, जिसे पाने में अपना यौवन ही खत्म हो जाए? जिसमें यौवन का कोई सुख ही नहीं हो?
भिक्षु– सच्चा और पूर्ण सुख तो भिक्षु के जीवन में ही है। तुम जिसे सुख समझती हो वह मात्र क्षणिक है।
आम्रपाली– आपका यह विश्वास मिथ्या सिद्ध होगा। आप मेरा अतिथि बनना स्वीकार करें जिस पाने के लिए राजा और राजकुमार भी लालायित रहते हैं। ।
भिक्षु– यदि हमारे शिक्षक, मुझे अनुमति प्रदान करते है तो जरुर मैं ठहर सकता हूँ।
आम्रपाली– ठीक है तो आप अपने शिक्षक से अनुमति लेकर आइए।
वह भिक्षु भगवान बुद्ध के पास जाता है। उसने आम्रपाली की बात बतायी। भगवान बुद्ध ने भिक्षु की आँखों में देखा और उसे आम्रपाली के निवास पर वर्षावास बिताने की अनुमति प्रदान कर दी। इस पर बहुत से भिक्षु नाराज हुए, पर बुद्ध को अपने उस शिष्य पर विश्वास था। वह बुद्ध की शिक्षा– शील, समाधि और प्रज्ञा में पका हुआ व्यक्ति था। बुद्ध लोगों को देखकर ही उसके बारे में जान लेते थे। ऐसा कहा जाता है कि वह दूसरे की मन की बातों को पढ़ लेते थे।
बुद्ध की अनुमति प्राप्त कर वह भिक्षु आम्रपाली के निवास पर रहने लगा। आम्रपाली को अपने रुप रंग पर विश्वास था कि वह भिक्षु को कुछ दिनों में अपने बस में कर ही लेगी। वह हर रोज उसे लुभाने का जी भर प्रयत्न करती रही, पर वह अपने प्रयास में सफल नहीं रही। एक महीना बीत गया और वह अपने प्रयास में असफल रहीं। अब उसे अपनी मूर्खता का खयाल और साथ ही भगवान बुद्ध की शिक्षा की महानता भी समझ में आयी। उसे अब कुछ-कुछ समझ में आने लगा कि भगवान बुद्ध के संघ में राजकुमार, और बड़े–बड़े विद्यान क्यों दीक्षित होते हैं। वह बुद्ध और उनकी शिक्षा से प्रभावित हुई। उसके अंदर संन्यास की भावना जागृति हुई। वर्षावास बिताने के बाद भिक्षु भगवान बुद्ध के पास लौट आया।
इस घटना बाद, कुछ दिनों के बहुत सोच–विचार करने के बाद, आम्रपाली ने भगवान बुद्ध से मिलने का निर्णय लिया। उसने अपना रथ निकाला और उस पर सवार होकर उस बाग में पहुँची जहाँ पर भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के साथ बैठे हुए थे। वह कुछ दूरी पर अपने रथ से उतर गयी। वहाँ से पैदल ही आम और ताड़ के पेड़ों के बाग से टहलते हुए भगवान बुद्ध के पास पहुँची। उसने भगवान बुद्ध को आसन पर बैठे देखा। उनकी मुख की आभा देखने लायक थी। उनके चेहरे की आभा को देखकर वह चकित रह गयी। उसने भगवान को झुक कर नमस्कार किया। बुद्ध ने उसे धम्म की शिक्षा दी। बुद्ध के दिए गये उपदेश उसके कानों में ऐसे पड़े कि जैसे मानो वर्षो से सूखी जमीन को पानी मिल गया हो। उपदेश समाप्ति के बाद उसने भगवान बुद्ध को उनके शिष्यों के साथ अपने निवास पर भोजन करने का निमंत्रण दिया। बुद्ध ने उसका यह निमंत्रण स्वीकार कर लिया।
आम्रपाली भगवान बुद्ध को अपने यहाँ भोजन का निमंत्रण देकर, रथ में सवार होकर अपने महल के तरफ चल दी। वह बहुत खुश थी। उसके चेहरे से खुशी झलक रही थी। उसे रास्ते में वैशाली गणराज्य के लिच्वी मिले जो अपने–अपने रथों में सवार होकर किसी देवता कि तरह भगवान बुद्ध को अपने यहाँ आमंत्रण देने जा रहे थे। जब उन्होंने आम्रपाली को इतना खुश देखा तो वे बड़े हैरान थे। इससे पहले उन्होंने उसे इतना खुश नहीं देखा था। जब उन्होंने उसके इस खुशी का राज पूछा तो उसने बताया कि भगवान बुद्ध ने उसके घर भोजन करना स्वीकार किया है। वे हैरान थे कि उनसे पहले एक नगरवधु अपने घर भगवान बुद्ध को भोजन कराने का पुन्य प्राप्त कर लिया था। वे चाहते थे कि सबसे पहले यह अवसर उन्हें प्राप्त हो। लिच्वी राजकुमारों ने आम्रपाली से यह अवसर बहुत सारे सोने–हीरे जवारत के बदले उसे देने के लिए प्रस्ताव रखा जिसे आम्रपाली ने ठुकरा ठिया। उसने कहा, “इस अवसर के बदले तुम मुझे अपना राज्य–पाठ भी दो, तब भी नहीं दूगीं।”
आम्रपाली से सौदा न होने कारण लिच्वी के राजकुमार नाराज होकर भगवान बुद्ध के पास गये। उन्होंने अगले दिन आम्रपाली के बदले, अपने यहाँ भोजन करने की प्रार्थना की। भगवान बुद्ध ने कहा, “मैनें पहले ही आम्रपाली के यहाँ भोजन करने का निमंत्रण स्वीकार लिया है। इसलिए, उसे मैं ठुकरा नहीं सकता।”
अगले दिन आम्रपाली सुबह से उठकर भगवान बुद्ध और उनके शिष्यों के लिए भोजन तैयार करने में जुट गयी। उनके आने से पहले उसने अपने को बहुत ही विनम्रता से तैयार किया। बुद्ध अपने शिष्यों के साथ आए और भोजन ग्रहण किया। उसके बाद आम्रपाली ने अपने दोनों हाथ जोड़कर अपना सुंदर आम का बगीचा भगवान को धम्म की सेवा में दान किया। बुद्ध ने उसकी यह दान स्वीकार किया। उसके बाद बुद्ध ने उसे धम्म की शिक्षा दी। वह, बुद्ध की शिक्षा से इतना प्रभावित हुई कि उसने नगरबधु से भिक्षुणी बनना स्वीकार किया। कुछ समय बाद उसे संघ में भिक्षुणी के रुप में शामिल हुई और अपना पवित्र जीवन प्रारम्भ किया। वह अपनी कड़ी साधना और लगन से अरहत अवस्था को प्राप्ति हुई।
इस प्रकार हम देखते है कि बुद्ध कि शिक्षा सबके लिए है। चाहे उसका जीवन पहले कितना भी अधम रहो हो, शिक्षा ग्रहण कर अपने प्रयास से वह बोधि को प्राप्त कर सकता है। यह शिक्षा सबके लिए है।
उपाली
उपाली का जन्म एक नाई परिवार में हुआ था जो उस समय की समाजिक व्यस्था में एक दास कुल माना जात था। उस समय दास कुल में जन्में लोगों का स्थान बहुत ही निम्न था।
उपाली के पिता ने उसे अपना गुजारा करने के लिए बाल काटने का काम सीखने के लिए कहा। उसने बड़ी मेहनत और लगन से काम सीखा और तरह–तरह के बाल काटने में महारथ हासिल की। उसकी बाल काटने की कार्यकुशलता के बल पर उसे शाक्य राजकुमारों के बाल काटने का काम मिला। वह उनके बाल काटता था।
जब उपाली २५ वर्ष का हुआ तो बुद्ध पहली बार गौतम से बुद्ध बनने के बाद अपने नगर कपिलवस्तु वापस आए थे। उपाली को उनके बाल काटने के लिए बुलाया गया। उसने कभी यह सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे बुद्ध के बाल काटने का मौका मिलेगा। क्योंकि, वह बुद्ध की महानता को सुन रखा था। उनके समान उस समय कोई दूसरा श्रेष्ठ नहीं था। वह अकेले बुद्ध के पास जाने से हिचकिचा रहा था। उसकी माँ ने उसे ढाँढस बधाया कि बुद्ध बहुत ही दयालु हैं। वह तुम्हें निम्न कुल के कारण नहीं दुत्कारेगे। माँ के बहुत समझाने के बाद भी उपाली इतने पवित्र आदमी के पास जाने से संकोच कर रहा था। इस पर उसकी माँ ने उसके साथ जाने का वादा किया।
अगले दिन वह अपनी माँ के साथ बुद्ध के बाल काटने गया। उसने बुद्ध के बाल काटा। उसके बाद उसकी माँ ने बुद्ध के सामने जमीन पर झुककर पूछा– हे भगवान बुद्ध, उपाली की कार्य कुशलता के बारे में, आपका क्या कहना है?
बुद्ध– यह जरुरत से ज्यादा झुकता है। यह बात सुनकर उपाली ने अपने को सीधा किया। ऐसा माना जाता है कि वह ध्यान की पहली अवस्था में प्रवेश किया।
माँ– भगवान बुद्ध, अब आपका क्या कहना है?
बुद्ध– उसका शरीर जरुरत से ज्यादा ही सीधी है। जब उपाली ने यह बात सुनी तो अपने आप को संयमित कर शरीर को ठीक किया।
माँ– अब भगवान आपका क्या कहना है?
बुद्ध– वह साँसें अपने अंदर बहुत तेजी से लेता है।
यह सुनकर उपाली ने अपनी साँसों को नियंत्रित करके लेने लगा। और ध्यान की तीसरी अवस्था को प्राप्त किया।
माँ– अब भगवान आपका क्या कहना है?
बुद्ध– वह अपनी सासें बहुत तेजी से छोड़ता है।
यह सुनकर उसने अपने बाहर जाने वाली साँसों को देखने लगा। वह ध्यान की चौथी अवस्था प्राप्त की। उसे खड़े–खड़े अवस्था में ही हाथ में उस्तरा लिए ध्यान मग्न हो गया। इस पर बुद्ध ने उसे अपने शिष्यों को उसका पकड़कर बैठाने के लिए कहा।
उपरोक्त वर्तालाप से हमे यह स्पष्ठ हो जाता है कि वह लोगों की आलोचना को खुले दिमाग से ध्यान से सुनता था और अपने को निरीक्षण कर उसमें सुधार करता था।
कुछ दिन के बाद, कई शाक्य राजकुमारों ने धम्म की दीक्षा लेने और संघ में शामिल होने का निर्णय किया। वे राजकुमार जो संघ में शामिल होने जा रहे थे, उनका नाम- भदिया, आनंद, अनिरुद्ध। उनके साथ चार और राजकुमार थे। चूँकि उपाली उनका नाई था। यह बात उसके वार्तालापों में सुन रखा था। एक दिन सभी राजकुमार संघ में शामिल होने जा रहे थे। साथ में अपने सिर को मुण्डन करने के लिए अपने साथ नाई उपाली भी था। जब वे रास्ते में जा रहे थे तो उपाली इस बात से परेशान होकर अचानक रोने लगा कि अब वह उनसे बिछड़ जाएगा। इस बात पर राजकुमार अनिरुद्ध उससे नाराज हुआ और बोला, “तुम रो क्यों रहे हो? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि हम लोग नोबल संघ में शामिल में हो रहे है।” इस पर उपाली ने कहा, “राजकुमार अनिरुद्ध, आप मेरी इस अशिष्ठता के लिए माफ करें। मैं इसलिए रो रहा हूँ कि राजकुमार भदिया, मेरे प्रति बहुत उदार रहे हैं। मैं उनसे अलग होना नहीं चाहता।” इस बात पर राजकुमार अनिरुद्ध को उपाली के प्रति बहुत प्यार की भावना जागी और राजकुमारों को संबोधित करते हुए कहा, “मेरें प्रिय भाईयों, उपाली ने हम सब की इतने वर्षो तक तन–मन से खूब सेवा की है। हमे उसके लिए कुछ करना चाहिए। यह मेरी शाल है। सभी अपने जो राजसी आभूषण हैं, उसको निकालो और उसे दे दें। क्योंकि, इनकी अब हमारी कोई जरुरत नहीं है।” इस पर सभी राजकुमार एकमत से सहमत हो गये और उन्होंने अपने आभूषण निकालकर उसे शाल में बाँधकर उसे उपाली को देकर अपने घर लौट जाने को कहा।
उपाली सारे हीरे–सोने के जवाहरात लेकर अपने घर के लिए निकल पड़ा। रास्ते में आते समय उसके मन में कई तरह के प्रश्न बार–बार घूम रहे थे। वह कपिलवस्तु पहुँचकर राजकुमार के घर वालों को क्या जबाब देगा? क्योंकि, राजघराने में यह बात किसी को पता नहीं थी। उपाली राजघराने का नाई होने के कारण उसका कर्तव्य बनता था कि वह यह बताए। दूसरा डर यह था कि कोई अगर यह देख ले कि उसके पास इतना सारा कीमती आभूषण कहाँ से आए? हो सकता है सिपाही उसे पकड़ ले। या कोई लुटेरा उन गहनों को पाने के लिए उसे मार दे। उसके मन में यह भी विचार चल रहा था कि जब ये राजकुमार, इतने नोबल खानदान का होकर इस धम्म की शिक्षा में दीक्षित होने जा रहे है तो मैं तो एक दास परिवार में जन्मा। कितना धन्य होगा मेरा जीवन यदि मैं उत्तम ज्ञान के मार्ग पर चलू। एक पवित्र जीवन जीऊँ। जब राजकुमारों ने इस संसारिक वैभव से ज्यादा अच्छा, यह ज्ञान का श्रेष्ठ मार्ग चुना है तो मेरी क्या हैसियत है। इसलिए, मुझे भी संघ में शामिल हो जाना चाहिए। उपाली ने बहुत सोच-विचार करने के बाद, आभूषणों से भरी पोटली को रास्ते में ही एक पेड़ की टहनी से बाँधकर संघ में शामिल होने चला गया।
जब उपाली संघ में शामिल होने जा रहा था तो उसके मन में तरह-तरह के दूसरे विचार आने लगे। उसके मन यह खयाल आ रहा था कि दास कुल में जन्मे व्यक्ति को भगवान अपने संघ में शामिल करेगें या नहीं। यह सोचकर वह परेशान होकर, रास्ते में ही बैठकर रोने लगा। तभी उसको किसी ने पीछे से आवाज दी। उसने अपने आँसू पोछा और देखा कि सामने बुद्ध के प्रमुख्य शिष्य सारीपुत्र सामने खड़ा है। वह झुककर नमस्कार किया और बोला, “आदरणीय भंते, आप बुद्ध के सबसे करीबी शिष्य हो। क्या मैं आपसे एक प्रश्न पूछ सकता हूँ? क्या बुद्ध के संघ में मुझ जैसे निम्न कुल में जन्में व्यक्ति को संघ में शामिल करते है? इस पर सारीपुत्र ने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?” “मेरा नाम उपाली है, भन्ते,” उपाली ने जवाब दिया।
उपाली नाम सुनकर सारीपुत्र को यह बात याद आयी कि यह वही नाई है जो एक बार बुद्ध के सिर के बाल काटने आया था। बुद्ध की बाते सुनते ही वह ध्यान की चौथे अवस्था को प्राप्त कर गया था। सारीपुत्र ने कहा, “बुद्ध के संघ में कोई भी शामिल हो सकता है। जो कोई व्यक्ति संघ के नियमों को पालन कर सकता है वह शामिल हो सकता है। तुम मेरे साथ आओ। निश्चित रुप से बुद्ध तुम्हारे संघ में शामिल होने से प्रसन्न होगे। तुम मेरे साथ बुद्ध के पास आओ।”
उपाली, सारीपुत्र के पीछे–पीछे चल दिया। बुद्ध के कहने पर पहले उसके सिर को मुडवाया गया। बुद्ध ने उससे कहा, “तुम्हारा स्वभाव अच्छा है। तुम भविष्य में, धर्म को आगे बढ़ाने में बड़े काम करोगे। तुमसे पहले राजकुमारों ने धम्म में दीक्षा लेने की प्रार्थना की है। परंतु, मैं चाहता हूँ कि पहले वे सात दिन तक मेडीटेशन करे ताकि उनके मन से उच्च वर्ग की भावना निकल जाय। भगवान बुद्ध ने उपाली को राकुमारों से पहले दीक्षित किया।
सात दिन के बाद, बुद्ध ने उन राजकुमारों को बुलाया। उपाली को आगे कर उन्होंने कहा, “आओ। तुम, अपने गुरु भाई से मिलो”। इस पर अचानक राजकुमारों को यह समझ नहीं आया कि वे उपाली को किस तरह से संबोधित करें। इस संशय को ताड़ते हुए बुद्ध ने राजकुमारों से कहा, “मैंने तुम लोगों से पहले उपाली को दीक्षित किया है। इसलिए, तुम्हें उसे नमस्कार करना चाहिए।” इस पर सभी सात साजकुमारों ने झुककर उपाली को नमस्कार किया। उपाली, बुद्ध की इस दया और करुणा से बहुत ही प्रभावित हुआ। उसने झुककर बुद्ध को नमस्कार किया।
उपाली ने अपनी परिश्रम और लगन से कड़ी साधना किया। उसे उसी साल बोधि की प्राप्ति हो गयी। वह बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में से एक हो गया। सभी उसके एक वर्ष के अंदर बोधि प्राप्त करने की सफलता पर चकित थे।
उपाली संघ में अनुशासन के बनाए गये सभी नियमों का पालन करता था और उसे सभी नियम कंठष्ठ कर रखा था। जो लोग अनुशासन के नियमों को सही से नहीं पालन करते थे, उन्हें उपाली काँटें की तरह चुभता था। कुछ लोग जान बूझकर भी नियमों का उल्लंघन करते थे ताकि वह परेशान हो। क्योंकि उपाली संघ के नियमों का निरीक्षक था।
जब भी कोई भिक्षु या भिक्षुणी किसी विनय के नियम को तोड़ता तो उसे उपाली की तरफ से कड़ी आलोचना सुनने को मिलती थी। इसी कारण से बहुत से भिक्षु और भिक्षुणी उसे पसंद नहीं करते थे। एक बार उपाली बुद्ध के बताये गये अनुशासन के नियमों को बता रहा था तो कई भिक्षुओं ने अपना दरवाजा बंद कर लिया।
एक बार की बात है कि किसी भिक्षुणी को विनय के नियम तोड़ने पर उपाली से कड़ी डांट पड़ी। उस पर वह खीझकर बोली, “तुम हमेशा किसी न किसी को परेशान करते रहते हो। तुम एक-एक बात के लिए बुद्ध से पूछते रहते हो। क्या चीज हमें करना है और क्या चीज नहीं करना है, यह बात भी पूछते हो। तुम हमारे लिए अनावश्यक परेशानी खड़ा करते हो।”
उपाली ने भिक्षु और भिक्षुणियों के उस तरह के व्यवहार को भुला दिया। यह बात बुद्ध को पता थी कि कौन क्या करता है या नहीं करता है। जब कभी बुद्ध किसी को विनय के नियम का पालन नहीं करते पाते तो उनको उपाली का उदाहरण देते थे।
एक बार की बात है, किसी भिक्षु के नियम का पालन नहीं करते पाये जाने पर बुद्ध ने कहा, “तुमने कभी उपाली को देखा है?”
भिक्षु– हाँ, हमने देखा है।
बुद्ध– लोग उसके साथ कैसा व्यवहार करते है?
भिक्षु– कुछ लोग उसका सम्मान नहीं करते है और नहीं कोई भेंट देते हैं। कुछ हमारे धम्म भाई तो उसे देखना भी पसंद नहीं करते। कुछ भिक्षुणियों ने उसे हर बात पर टोकने पर डांटा भी है।
(इस बात हैरान होते हुए)बुद्ध ने और पूछा– ऐसा क्यों?
भिक्षु– क्योंकि, वे उसे अड़चन या रोड़े के रुप में देखते है।
इस बात पर बुद्ध अप्रसन्न हुए और सभी भिक्षुओं को बुलाया। जब सभी भिक्षु इकट्ठा हो गये तो बुद्ध ने नियम के पालन का महत्व को बतया। बुद्ध ने कहा, “जो विनय के नियमों को पालन करते हैं, वे जलते हुए दीपक के समान है। जो लोग नियमों का पालन करते हैं, वे शुद्ध मन से प्रकाश की तरह चमकते है। पर जो बुरे मन के लोग है, उन्हें अंधेरा पसंद है।”
उसके बाद बुद्ध ने उन सभी भिक्षु और भिक्षुणियों को बुलाया जिन्होंने उपाली का अपमान और बुरा भला कहा था। जब सभी आ गये तो बुद्ध ने कहा, “मैंने सुना है कि जब उपाली ने विनय के नियमों को तोड़ने पर पर तुम्हें कुछ कहा तो तुम लोगों ने दरवाजा बन्द कर लिया और उसे बुरा भला कहा। क्या यह बात सत्य है?” इस बात पर कोई भी झूठ बालने का साहस नहीं कर सका। सभी ने अपनी गलती स्वीकार किया।
बुद्ध ने इस पर सबको डांटा और कहा, “तुम लोग कितने अज्ञानी हो। नियमों के पालन के साथ-साथ, तुम्हें किसका सम्मान करना करना है, यह भी तुम्हें नहीं पता? नियम जो है सत्य की आधार शिला है। यदि तुम अपने धम्म भाईयों का सम्मान नहीं करते हो तो इसका मतलब यह है कि तुम सत्य को अस्वीकार करते हो।”
उपाली ने जब कोई भिक्षु और भिक्षुणी बिमार हो, तब उसकी देखभाल कैसे करें, उसके बारें में भी क्या तरीका या नियम क्या हो, उसके बारे में विस्तार से पूछा है। जिसकी कुछ सारांश में नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ–
एक बार उपाली ने बुद्ध से पूछा– भगवान बुद्ध, जब कोई हमारा वरिष्ठ भाई या ज्येष्ठ भाई बिमार पड़ जाए, तो हमें उसकी देख–भाल कैसे करनी चाहिए?
बुद्ध ने कहा– यदि कोई बुजुर्ग या बड़ा धम्म भाई बिमार पड़ता है तो उसे बड़े साफ सुथरे कमरे में रखना चाहिए। यदि उसका कोई शिष्य है तो उसे उसकी दिन–रात सेवा करनी चाहिए। उसे उसके कमरे की साफ–सफाई करनी चाहिए। वह उसके लिए फूलों की व्यवस्था करे। उसके कमरे में अगरबत्ती आदि जलाए। यदि कोई धम्म भाई उससे मिलने आता है तो उसके शिष्य को आगंतुक के लिए खाना–पानी और दवाई की व्यवस्था करनी चाहिए। यदि रोगी किसी रोगी आगंतुक के प्रश्न को उत्तर देने में असमर्थ है तो उसके शिष्य को उसकी तरफ से उत्तर देना चाहिए। धम्म भाईयों को इस अवसर पर बुद्ध की शिक्षा को उसको बताना चाहिए। उन्हें भी रोगी की देखभाल के लिए सभी तरह के प्रबंध करने चाहिए जैसे– खाने–पीने की चीजें, दवाई। यदि कोई आम आदमी रोगी को देखने आता है तो उस आदमी को बुद्ध की शिक्षाओं को बताना चाहिए। यदि कोई उपासक उसे कुछ भेंट करे तो उसे स्वीकार करना चाहिए और उसे उसको आशीर्वाद देना चाहिए। रोगी के कमरे के द्वार पर, किसी न किसी को आगंतुकों को स्वीकार करने के लिए होना चाहिए।
जब बुद्ध ने पहले प्रश्न का उत्तर पूरा किया तो उपाली ने दूसरा प्रश्न पूछा। भगवान, जब कोई हमारा छोटा धम्म भाई बिमार पड़े तो उसकी देखभाल कैसी करनी चाहिये?
इस पर बुद्ध ने कहा– यदि कोई नवदीक्षित या छोटा भिक्षु बिमार पड़ जाये तो उसे उचित स्थान पर रखना चाहिए। उसका कमरा साफ रखना चाहिए। बड़े या ज्येष्ठ धम्म भाइयों या उसका कोई शिष्य है तो उसे उसकी देख-भाल करना चाहिए। यदि उसका कोई ज्येष्ठ भाई या शिष्य नहीं है तो किसी को आने या बुलाने के लिए कहना चाहिए। एक समय में तीन से ज्यादा आगंतुक नहीं होने चाहिए। जो कोई भी आगंतुक उसे मिलने आता है, उसे रोगी की देखभाल जैसे खाना–पीन की चीजें और दवाई आदि देनी चाहिए। यदि उसके पास खाना–पीने की चीजें या दवाई नहीं है तो उसका प्रबंध करना चाहिए। यदि उसके पास भी ये चीजें नहीं है तो उसे रोगी का कोई व्यक्तिगत समान जैसे– भिक्षा पात्र या वस्त्र को उसे बेचकर उसके लिए खाने–पीने की चीजें और दवाई का प्रबंध करना चाहिए। यदि रोगी इन चीजों को बेचना नहीं चाहता है तो उसके किसी बड़े भाईयों को इस बात की सूचना दी जानी चाहिए। बड़े भाईयों को उसका खयाल रखना चाहिए। उसके बड़े या ज्येष्ठ को उसके लिए खाना–पानी माँगना चाहिए। यदि उसके लिए खाना नहीं माँग सकते तो जो अपने लिए प्रतिदिन खाने-पीने की सामाग्री है, उसमे से उसे प्रदान करना चाहिए। यदि उनके पास खाने–पीने की चीज नहीं है तो उन्हें उसके लिए भोजन माँगना चाहिए।
इस तरह की बहुत सी बातें उपाली ने भगवान बुद्ध से रोगी की देखभाल संबंधी विषयों के बारे में पूछा। रोगी के द्वारा किसी छोड़ी हुई वस्तु का क्या करना चाहिए, उसके बारे में भी पूछा। उपाली ने रोगी की जितनी तरह की समस्याओं को देखा, उन सभी के निदान के बारे में बुद्ध से जानकारी प्राप्त की।
जब पहली धम्म का संघायन हुआ तो उपाली को संघ के विनय नियमों को बताने के लिए चुना गया। इस पर उसने अपनी विनम्रता दिखाते हुए पहली बार अस्वीकार कर दिया। महाकस्सपा ने उससे आग्रह किया कि उसे धम्म सभा में भाग लेना चाहिए। महाकस्सपा ने कहा, “भंते उपाली, कृप्या हमारी माँग मत ठुकराईए। आपको भगवान बुद्ध ने जो विनय के बहुत से नियमों को विस्तार से बताया है। आप हम सभी में विनय के नियमों को जानने में श्रेष्ठ हैं। आपको सभी नियम कंठष्थ है। कृप्या आप संघ के नियमों को बताईए। इस पर उपाली ने उनकी माँग स्वीकार की और उसने विनय के नियमों को बताया। कब, कहाँ, क्यों और किसको, किस अवसर पर और किसलिए बनाए गये। उसने इतनी अच्छी तरह से बताया कि सभी ने उसकी इस विलक्षण स्मृति की प्रशंसा की।
उपाली ने विनय के नियमों के संग्रह करने में बहुत बड़ा योगदान दिया। धर्म संघायन के समय उपाली की उम्र सत्तर वर्ष की थी। जब किसी भिक्षु या भिक्षुणी को किसी विनय के नियम में कोई भ्रांति होती या स्पष्ठता नहीं होती तो सभी उपाली से पूछते थे।
यद्यपि उपाली का जन्म एक दास परिवार में हुआ था, फिर भी उसे संघ में बहुत उच्च सम्मान मिला था। वह लोगों के लिए हमेशा प्रेरणा का श्रोत रहा। उसकी यह सफलता संघ में सबकी बराबरी की गरिमा को प्रकाशित करता है।
सारीपुत्र
सारीपुत्र का जन्म मगध राज्य के राजग्रह में, एक बहुत ही विद्वान घराने परिवार में हुआ था। उसके पिता एक बहुत बड़े विद्वान थे। सारीपुत्र का जन्म जिस गाँव में हुआ, उस गाँव का नाम उपतिस्स था। उसकी माता का नाम सारी था। राजग्रह में ही एक दूसरा गाँव कोलिता था। उस गाँव में मोग्गाली नामक एक बमण महिला को कोलिता नामक पुत्र हुआ। ये दोनों महिलाए एक दूसरे की दूर की संबंधी थी। ऐसा कहा जाता है कि दोनों का गर्भधारण भी एक ही दिन हुआ था और दोनों बच्चों का जन्म भी एक ही दिन हुआ था। जब वे दोनों बड़े हुए तो एक ही विद्यालय में पढ़ने जाते थे। इसलिए उपतिस्स और कोलिता एक दूसरे को जानते थे। जब ये दोनों बड़े हुए तो बाद में इनका नाम उनका नाम उनकी माता और गाँव के नाम पर सारीपुत्र और मौग्लाना पड़ा। ।
ऐसा माना जाता है कि जब सारीपुत्र अपने माँ के कोख में था तो उसकी माँ को विद्वता प्राप्त होने की अनुभूति प्राप्त हुई। यह उसके घर वाले उसके कोख में पलने वाले बच्चे का प्रभाव मानते थे। वह अपने भाई को भी शास्तार्थ में हरा देती थी जो कि वह खुद बड़ा विद्वान था। उसके भाई को इस बात का एहसास हुआ कि यह सब उसके कोख में जो बच्चा पल रहा है, उसके प्रभाव से ही सब कुछ हो रहा है। वह जान गया कि उनकी बहन की होने वाली संतान बहुत ही विद्यान होगी। वह उसे शास्त्रार्थ में हरा भी सकता है। कहीं वह अपने बहने पुत्र से शास्त्रार्थ में हार ने जाय, इर डर से वह और उच्च ज्ञान प्राप्त करने के लिए घर को छोड़ दिया।
सारीपुत्र अपने जन्म के बाद, जब वह मात्र आठ साल का था तभी उस समय जितनी भी पुस्तकें या बातें उसने पढ़ी या सिखायी गयी, उसे बहुत अच्छी तरह से समझता था। एक बार एक बहुत बड़े अमीर आदमी ने एक पार्टी बुलायी। उसने पार्टी में राजा और उसके मंत्री, राजकुमार और बड़े–बड़े विद्यानों को आमंत्रित किया। उस पार्टी में सारीपुत्र को भी आने का आमंत्रण मिला। वहाँ पर उसने अपने विद्वता पूर्ण भाषण से सबका ध्यान आकर्षित किया। सारीपुत्र की विद्वता से राजा इतना खुश हुआ कि एक कहानी के अनुसार राजा ने उसे एक गाँव इनाम के तौर पर दे दिया।
एक कहानी के अनुसार एक मेले की घटना ने उन्हे संसार के मोह भंग कर लिया। उन दिनों राजग्रह में एक वार्षिक उत्सव मनाया जाता था। वह उत्सव कई दिनों तक चलता था। उत्सव के दौरान बहुत बड़ा मेला लगता था। सारीपुत्र और मोग्लाना एक बार दोनों मेले में गये। वहाँ पर तरह-तरह के कार्यक्रम चल रहा था। दोनों ने उसे बड़े उत्साह से देखा। पहले दिन वे बहुत खुश हुए। उन्होंने खुशी में खूब पैसे भी लुटाए। ऐसा दूसरे दिन भी हुआ। पर तीसरे दिन उनमें वह उत्सुकता नहीं रही। उनको अब वह कार्यक्रम को देखकर कोई खुशी नहीं हो रही थी। वे उब चुके थे। दोनों के मन में एक जैसा ही सवाल था कि इन सब चाजों से क्या फायदा? जल्द ही वे बूढ़े हो जाएगे और मृत्यु उन्हें अपना शिकार बना लेगी! वे इन सब चीजों से मुक्त होना चाहते थे। कोलिता ने उपतिस्स के कहा, “कुछ दिन पहले तो तुम यह सब कार्यक्रम देखकर बहुत खुश थे। आज वह खुशी तुम्हारे चेहरे पर नहीं है। ऐसा क्यों? तुम्हारा इर पर क्या कहना है?”
इस पर उपतिस्स ने कहा, “ये सभी चीजें मुझे अब बेकार लग रही है। अब इस तरह की चीजें निर्रथक लग रही है। इन चीजों में मुझे कोई खुशी नजर नहीं आ रही है। इस सब चीजों से मैं मुक्त होना चाहता हूँ। तुम भी इन सब चीजों से मेरी तरह ही असंतुष्ठ दिखाई दे रहे हो। इस पर तुम्हारा क्या विचार है?”
कोलिता ने जवाब दिया। मेरा भी वही खयाल है जो तुम कह रहे हो। इस पर उपतिस्स ने कहा, “क्यों नहीं कोई अपने लिए ऐसा शिक्षक ढूढ़े जो हमें मुक्ति का मार्ग बताए।”
इस घटना के कुछ दिन बाद दोनों ने राजग्रह में ही संजय नाम के एक शिक्षक से शिक्षा ग्रहण करना शुरू कर दिया। संजय निगाथ पंथ का शिक्षक था। संजय के पास उस समय पाँच सौ शिष्य शिक्षा ग्रहण करते थे। चूंकि ये दोनों बहुत ही धनी परिवार से थे। जब वे संजय के पास गये तो उनके साथ और भी की धनी परिवारों के लड़के पढ़ने गये। सभी परिवारों का संजय को भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ।
कोलिता और उपतिस्स प्रारम्भ से ही बहुत मेधावी थे. दोनों ने कुछ ही महीनों में संजय का संपूर्ण ज्ञान सीख लिया। लेकिन वे उस ज्ञान से संतुष्ठ नहीं हुए। वे जीवन के सत्य को जानना चाहते थे। जब दोनों को इस बात का पता चला कि उनका गुरु उनके प्रश्नों का ठीक–ठीक उत्तर नहीं दे सकता तो उन्होंने उस गुरु को छोड़ने का निर्णय किया। क्योंकि वह उनके प्रश्नों को ठीक–ठीक से उत्तर देने पर असमर्थ था। दोनों ने संजय से पूछा, आदरणीय, क्या आप की यही सब शिक्षा है या इसके आगे भी है। इस पर संजय ने कहा, “मेरी शिक्षा यही तक है। इसके आगे मैं नहीं जानता।”
संजय का जवाब सुनने के बाद उन्होंने खुद से कहा, “हम लोगों ने घर इसलिए छोड़ा कि हमें मुक्ति मिले। यह शिक्षक हमारे लिए निर्रथक है। दुनियाँ बहुत बड़ी है। अगर हम लोग तलाश करेगें तो हमें योग्य शिक्षक मिल ही जाएगा। उन्होंने आपस में यह वादा किया कि जिस किसी को योग्य शिक्षक मिलेगा, वह दूसरे को बताएगा। इसके बाद अलग-अलग जगहों पर गये। बहुत से शिक्षकों से बात-चीत की। काफी समय तक खोजने पर भी उन्हें कोई योग्य शिक्षक से मुलाकात नहीं हुई।
इस घटना के कुछ ही समय बाद भगवान बुद्ध राजग्रह में आए। उस यात्रा के दौर में भगवान बुद्ध ने राजग्रह की पहाड़ियों पर ‘फायर सूत्र’ का उपदेश दिया। राजग्रह में आने पर वे राजा बिम्बसार से मिले। भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति से पहले बिम्बसार को यह वचन दिया था कि बुद्धत्व प्राप्ति के बाद उससे जरूर मिलेगे। राजा बिम्बीसार को उन्होंने धम्म सुनाया और वह उनका उपासक हो गया। उसने संघ को वेणु वन दान में दिया।
राजा बिम्बीसार को धम्म देने के बाद भगवान बुद्ध अपने ६० शिष्यों के साथ वेणु वन में ठहरे हुए थे। सुबह-सुबह भिक्षु अपना भोजन के लिए राजग्रह की गलियों में आते थे।
एक दिन की घटना है; सुबह का समय था। अस्साजी राजग्रह में भीक्षाटन पर निकले थे। उपतिस्स ने एक गली में जा रहे अस्साजी को पहली बार देखा। अस्साजी उन पहले पाँच शिष्यों में से एक थे जिनको बुद्ध ने धम्म की सबसे पहले दीक्षा दी थी। कई सालों बाद अस्साजी अरहत की अवस्था प्राप्त कर चुके थे। अस्साजी का प्रभावशाली और सम्मानित चाल–चलन उपतिस्स का ध्यान खींच लिया। उस समय उसने अस्साजी को रोकना उचित नहीं समझा। वह दूर से ही उनका पीछा करना शुरू किया। जब अस्साजी को भिक्षा मिल गयी तो एक पेड़ की छाँव में बैठकर भोजन करने को निर्णय किया। उचित अवसर जानकर, उपतिस्स या सारीपुत्र अस्साजी के पास गया। कुछ शिष्टाचार की बातें आदान–प्रदान होने के बाद उपतिस्स ने पूछा– पूज्यनीय, आपका नाम क्या है और आपके शिक्षक कौन है?
अस्साजी ने कहा– मेरा नाम अस्साजी है और शाक्यमुनि बुद्ध मेरे शिक्षक हैं।
सारीपुत्र– आपके गरिमामय चाल–चलन और व्यहार को देखकर मुझे लगता है कि आपने अरहत की अवस्था प्राप्त कर ली है। क्या मेरा ऐसा कहना गलत है?
अस्साजी– (अस्साजी इस बात को जानत थे कि जैनमुनि के शिष्य बुद्ध की शिक्षाओं का विरोध करते हैं। इसलिए, कुछ प्रकार जवाब दिया) – मैं तो अभी इस धम्म में नया हूँ और अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है। मेरे गुरु सब कुछ जानने वाले है और उनके समान कोई दूसरा इस समय पूरी धरती पर नहीं है। वे सम्यक संबुद्ध है।
सारीपु़त्र– उनकी शिक्षाएं क्या है, मुझे बस संक्षेप में ही उनकी शिक्षाओं का सार बताइए। बस कुछ ही पंक्तियों में भी बता सकें तो मैं उसे हजार तरह से प्रयत्नकर समझने की कोशिश करुँगा। आप बस, इतना भी बता दें कि उनकी शिक्षाओं का सार क्या है, तब भी मैं संतुष्ठ हो जाऊँगा।
अस्साजी– उनकी शिक्षा यह है कि हर घटना के होने के पीछे कोई ने कोई कारण है। जिस किसी चीज की उत्पत्ति हुई तो उसका विनाष भी होगा। इस संसार में कोई चीज नित्य नहीं है। दुःख, दुःख का कारण, दुःख का निवारण, और निवारण का मार्ग बताते हैं। यही मेंरे शिक्षक की शिक्षा का सार है।
उपतिस्स पहली दो पंक्तियों को सुनते ही सोतापन्न में प्रवेश कर गया और अगली दो पंक्तियों में सोतापन्न हो गया। उसके ज्ञान के चक्क्षु खुल गये। उसे ज्ञात हो गया कि यह मुक्ति का मार्ग है। उसने कहा कि मैं शिक्षक से मिलना चाहता हूँ। वह कहाँ रहते है? इस पर अस्साजी ने बताया कि वे वेणु वन में ठहरे हुए हैं। उपतिस्स ने कहा, “मैं शिक्षक से मिलने वेणु वह आऊँगा, भंते। मैंने अपने मित्र से यह वादा किया था कि जो कोई भी हम दोनों में से मुक्ति का मार्ग पाएगा, वह दूसरे को बताएगा। अस्साजी की यह बात सुनकर सारी पुत्र के ज्ञान के कुछ चक्षु खुल गये। इस संसार के प्रति जो उसका भ्रम था वह टूट गया। वह सार सुनकर ही इतना प्रभावित हुआ कि जिस दिशा में उसे पता था कि बुद्ध रहते है, उस दिशा में हाथ जोड़कर तीन बार झुककर नमस्कार किया।
उपतिस्स अपने निवास पहुँचकर यह बात अपने मित्र कोलिता को यह बात बताई। कोलिता इस बात को सुनकर इतना प्रभावित हुआ कि उसे खुशी के आँसू निकल गये और कहा कि आखिकार उनके लिए एक सही शिक्षक मिल ही गया। अगले ही पल वे दोनों अपने गुरु संजय के पास गये और बोले कि उन्हें एक शिक्षक मिल गया है। उनकी शिक्षा का सार यह है। आप भी चलकर उनका शिष्य बन जाइए। इस पर संजय से उनकी लंबी वार्ता होती है। संजय बुद्ध की शिक्षा सुनना ही नहीं चाहता था। वह यह भी नहीं चाहता कि उपतिस्स और कोलित बुद्ध का शिष्य बने। संजय ने कहा, “अगर तुम चाहो तो हमारे पास तुम शिक्षक का काम दे सकता हूँ। जो कुछ उपहार भी मिलता है उसमे से भी तुम दोनों को दूँगा। तुम दूसरे का शिष्य होना क्यों चाहते हो? तुम यहाँ मान, सम्मान और धन का उपभोग करो। पर यहाँ से छोड़कर किसी दूसरे शिक्षक के पास मत जाओ। इस पर उपतिस्स और कोलित ने कहा, “हमें जीवन भर शिष्य बने रहने में भी कोई शिकायत नहीं है। हम लोग जानना चाहते है कि आप चलना चाहेगें या नहीं?” संजय ने कहा, “मैं एक शिक्षक हूँ और मेरे बहुत सारे शिष्य है। मैं अब शिष्य का जीवन नहीं जी सकता”। उपतिस्स ने कहा, “ऐसा आप क्यों सोचते है? संजय ने कहा, “मैं नहीं जाऊँगा। अगर तुम जाना चाहते हो तो जा सकते हो?”
उपतिस्स ने कहा, “बुद्ध का इस संसार में आना ही एक बहुत बड़ा दुर्लभ है, सभी दिशाओं के लोग उनसे मिलने आते है। वे फूल, धूप, आदि से उनका स्वागत करते है। हम सभी को उनसे मिलने जाना चाहिए। इस पर संजय ने कहा, “यह बताओ, इस संसार में बुद्धिमान लोगों की संख्या ज्यादा है या मूर्ख लोगों की?
उपतिस्स- मूर्ख लोगों की ज्याद है, महोदय।
संजय- यदि यह बात सही है तो बुद्धिमान लोग बुद्ध को पास मुक्ति और ज्ञान के लिए जाएगे। मूर्ख लोंग मेरे पास आयेगे। तुम लोग जाओ। मैं नहीं जाऊँगा।
इस पर उपतिस्स और कोलित ने कहा, “हे शिक्षक हम तो चले जाएगे, पर आप बाद में पछताओगे।” यह कह कर दोनों वेणु वन के लिए चल दिए। उसके तुरंत बाद संजय के शिष्य दो दलों में बट गये। एक दल बुद्ध के पास धम्म की दिक्षा लेने चला गया। उनके जाने के बाद संजय का स्कूल लगभग खाली हो गया। है।
जब उपतिस्स और कोलित वेणु वन पहुँचे, उस समय भगवान बुद्ध सभा में बैठे हुए थे। उनको सभा की तरफ आते देख बुद्ध ने कहा, “ये दो लोग जो आ रहे है, वे मेरे प्रमुख शिष्य होगे”। सभा में पहुँचकर दोनों ने हाथ जोड़कर बुद्ध को नमन् किया और धम्म में दीक्षा लेने की प्रार्थना की। भगवान बुद्ध ने उन दोनों की दीक्षा देकर संघ में शामिल किया। धम्म में दीक्षित होने के बाद ही उनका नाम उपतिस्स से सारीपुत्र और कोलिता से मोग्गलाना रखा गया।
सारीपुत्र, बुद्ध के सबसे विद्वान शिष्यों में से विद्वता में श्रेष्ठ था। एक बार बुद्ध ने उसे उत्तरी भारत में धम्म को प्रचारित करने के लिए भेजा। उस समय जेतवन में विहार बनने की भी तैयारी हो रही थी। जिसके निरीक्षण का कार्यभार सारीपुत्र को मिला। जेतवन राजकुमार जेत का उपवन था जिसे अनाथपिण्डक ने जेत से खरीदकर संघ को दान दिया था। उस समय बुद्ध कि शिक्षाएं उत्तर भारत तक नहीं फैली थी। धर्मपंथी बुद्ध की शिक्षा से जलते थे। वे चाहते थे कि उनकी शिक्षा नहीं फैले। जब यह बात धर्म पंथियों को पता चला कि अनाथ पिण्डक बुद्ध की शिक्षा के लिए विहार बनवा रहा है तो उन्होंने अनाथपिण्डक को ऐसा करने से मना किया। अनाथ पिण्डक ने उनकी बातों को अनसुना कर दिया। जब वे इस बात में असफल रहे तो उन्होंने एक धर्म चर्चा में वाद–विवाद के लिए सारीपुत्र को आमंत्रित किया। सारीपुत्र ने उनकी इस चुनौती को स्वीकार किया। सारीपुत्र ने उनकी इस चुनौती को धम्म प्रचार करने के अवसर के रुप में प्रयोग में लाया।
जब शास्त्रार्थ शुरु हुआ तो सारीपुत्र ने अकेले ही सारे धर्म पंथियों को अकेले ही परास्त कर दिया, क्योंकि वह उनके पंथ के बातों को पहले से ही जानता था। जिसके परिणाम स्वरुप उसने उस सभा में ही बहुत से धर्म पंथी को बुद्ध के धम्म में दीक्षित किया।
सारीपुत्र ज्ञान और पराज्ञान के क्षेत्र बहुत जाने माने शिष्य था। उसने बुद्ध के बताए गये सभी नियमों का पालन पूरा जीवन किया।
बुद्ध, सारीपुत्र पर बहुत ही विश्वास करते थे। जब उनका पुत्र, राहुल संघ में शामिल हुआ तो बुद्ध ने सारीपुत्र को उसका शिक्षक नियुक्त किया।
एक दिन राहुल जब सारीपुत्र के साथ भिक्षाटन के लिये गया। भिक्षाटन के बाद उदास भाव से लौटा। जब बुद्ध ने उसकी इस उदासी का कारण पूछा तो उसने बताया, “जब हम लोग भिक्षाटन पर बाहर गये हुए थे तो उपासक बड़ों और नवयुवक भिक्षुओं को एक ही जैसा भोजन दे रहे थे। जो भोजन वे दे रहे थे उसमें कोई खास पोषक तत्व नहीं होता है। स्वस्थ रहने के लिए संतुलित आहार होना चाहिए। हमारे बड़े या ज्येष्ठ इस बात का खयाल नहीं रखते।”
बुद्ध इस बात को अच्छी तरह से अपने अनुभव से जानते थे कि शरीर स्वस्थ रखने के लिए संतुलित भोजन बहुत ही आवश्यक है। शरीर स्वस्थ नहीं रहेगा तो मन स्वस्थ नहीं रह सकता। एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है और विकसित होता है। बुद्ध ने कहा, “यह बात सही है, पर वह अभी संतुलित भोजन से ज्यादा मेडीटेशन पर ध्यान दो। इस पर बहुत ज्यादा चिंतित न हो। मैं इस संबंध में बात करता हूँ।”
राहुल, बुद्ध के आश्वासन देने के बाद चला गया। उसके बाद बुद्ध ने सारीपुत्र को बुलवाया। जब सारीपुत्र आया तो बुद्ध उससे कुछ देर बातें की। बुद्ध ने कहा, “बड़ों का सिर्फ यही कर्तव्य नहीं होता है कि बस अपना ही खयाल रखें। उन्हें अपने से छोटों को खयाल रखना होता है”।
सारीपुत्र बहुत की विनम्र था। वह कभी भी व्यक्तिगत स्वार्थ या नाम के लिए कुछ नहीं किया। उसने धम्म की सेवा पूरा जीवन पूरे जी जान से सेवा की। उसने अपने निजी जीवन में अपने सुख–सुविधा या नाम के लिए कुछ भी चीज इकट्ठा नहीं किया या बनाया।
एक बार बुद्ध अपने शिष्यों के साथ कहीं से उपदेश देकर जेतवन के विहार में लौटे। उनके आने से पहले ही कहीं दूसरी जगह से छः भिक्षु विहार में पहले से स्थान ग्रहण कर लिया था। वे विनय के नियमों का सही से पालन नहीं करते थे। जब सारीपुत्र ने देखा कि उसका निवास स्थान, उन्होंने पहले से ग्रहण कर रखा है तो उनसे कुछ नहीं कहा। उस रात सारीपुत्र को पूरी रात एक पेड़ के नीचे मेडीटेशन करते हुए बिताने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था।
अगले दिन जब यह बात बुद्ध को पता चली तो उन्होंने सभी भिक्षुओं को बुलाया। जब सभी इकट्ठा हो गये तो बुद्ध ने कहा, “भिक्षु तुम्हें धम्म में बड़ों का सम्मान करना चाहिए। ऐसा करोगे तभी तुम इस जीवन में सम्मान प्राप्त करोगें। इस धम्म में कोई पद, श्रेणी या वर्ग नहीं है, पर तुम्हें अपने से बड़ों का आदर–सम्मान करना चाहिए। इसलिए सबसे पहले, हमेशा बड़ों को चाहे वह खाने–पीने की चीज हो या बैठने–उठने की, उनको सम्मान देना चाहिए।” बुद्ध यह बात किस लिए और किसके संबंध में कही, सभी ने इस बात को समझा। इस पर सारीपुत्र बुद्ध का बहुत बड़ा अभार व्यक्त किया।
सारीपुत्र पूरे जीवन बिना थके, कभी भी, कहीं भी धम्म की शिक्षा देने में कभी संकोच नहीं किया। एक दिन की बात है कि जैसे ही सारीपुत्र ने कहीं जाने के लिए विहार से प्रस्थान किया उसके थोड़ी देर बाद एक भिक्षु बुद्ध के पास गया और बोला, “भगवान बुद्ध, सारीपुत्र बाहर शिक्षा देने के उद्देश्य से नहीं गया है बल्कि, यात्रा करने के उद्देश्य से गया है। उसने मेरा अपमान किया है और माफी भी नहीं माँगा है।”
जब सारीपुत्र वापस आया तो बुद्ध ने उसे फौरन इस बात का स्पष्ठीकरण करने के लिए बुलाया। उस समय वहाँ पर जितने भिक्षु थे, सभी मौजूद थे। इस पर सारीपुत्र ने बहुत ही विनम्र स्वभाव से जवाब दिया, “भगवान बुद्ध, जब से मैं आपका शिष्य बना हूँ तब से मैंने कोई झूठ बात नहीं बोला है। मैंने नहीं किसी किसी से व्यक्तिगत लाभ या मान के लिए वाद–विवाद किया है। प्रतिदिन जैसा कि आपने बताया है, उसी के अनुसार मेडीटेट किया है। जैसे निर्मल जल अच्छी और बुरी चीजों को एक ही जैसे साफ कर देता है, उसी तहर मेरे मन किसी कि प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। भला मैं किसी दूसरे को क्यों अपमानित करुगाँ?” सारीपुत्र ने अपना कथन जारी रखते हुए कहा, “जैसे पृथ्वी सभी प्रकार की गंदगी स्वीकार करके भी सहनशील बनी रहती है उसी तरह मेरा मन भी सभी तरह की आलोचना को भी सहन करता है। जैसे एक झाङू से अच्छी बुरी दोनों चीजें साफ हो जाती है और वह किसी में भेद नहीं रखता। ठीक उसी प्रकार मेरा मन भी इन तहर की मनपसंद और नापसंद चीजों के प्रति भ्रवित नहीं होता। मैंने अपने तन, मन से किसी के साथ कोई भेदभाव या अपमान नहीं किया है। यदि सचमुच मैंने कोई गलती की है या मुझसे कोई गलती हुई है तो मैं उसके लिए भिक्षु से माफी माँग लूँगा।”
सारीपुत्र के इस बात से सभी बहुत प्रभावित हुए। इस बात पर उस भिक्षु बिना संकोच किये सारीपुत्र के आगे झुककर अपनी इस मिथ्या आरोप के लिए क्षमा माँगी। इस पर सारीपुत्र ने उस भिक्षु के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “त्रुटियाँ मनुष्य से ही होती है। मैं तुम्हारी माँफी को स्वीकार करता हूँ।” इस प्रकार हम देखते है कि सारीपुत्र बहुत ही बड़े खुले दिल वाले व्यक्ति था।
एक बार की बात है; सारीपुत्र ग्रधाकुटी में राजग्रह के पास वज्रसमाधी की अवस्था में था। कई दिनों की लागातार साधना से कमजोर हो गया था। मारा ने उसको कमजोर और दुर्बल जानकर उस पर अपनी शक्ति का प्रहार किया, पर वह उल्टे ही घायल और परास्त हो गया।
सारीपुत्र को जब बुद्ध को महापरिनिर्वाण की बात पता कि उस दिन से तीन महीने बाद बुद्ध अपना यह शरीर छोड़ देगे तो उसने सोचा, “पूर्व में जितने भी बुद्ध हुए हैं उनके प्रमुख शिष्यों ने अपने शिक्षक से पहले ही परिनिर्वाण को प्राप्त किया था। इसलिए, मुझे भी बुद्ध के महापरिनिर्वाण से पहले इस संसार से निर्वाण प्राप्त कर लेना चाहिए।” इसलिए, वह बुद्ध के पास गया और उनसे पहले परिनिर्वाण प्राप्त करने की अनुमति माँगी। कुछ वर्तालाप करने के बाद बुद्ध ने उसे पहले निवार्ण प्राप्त करने की अनुमति दे दी। अपने परिनिर्वाण के लिए अपने गाँव लौट आने का निर्णय किया।
सारीपुत्र वहाँ से प्रस्थान करने से पहले सभी अपने शिष्यों को बुलाया और उनको शुभ–विदा कहा। उसके बाद उसने बुद्ध से कहा, “भगवान बुद्ध, मैं पिछले चालीस वर्षों से मैं आपके बताए हुआ मार्ग पर चला। आप ने अपने प्रेम और करुणा से मुझे मार्ग दिखाया। मुझे सत्य जानकर बोधि प्राप्त कराया। इसके लिए आपका बहुत–बहुत धन्यवाद। मेरे पास अभार प्रकट करने के लिए शब्द नहीं है। मुझे खुशी है कि मैं बुद्ध धम्म को समझ पाया और उससे निर्वाण प्राप्त किया। मेरा यह अंतिम अभिवादन स्वीकार करें।” यह कहकर सारीपुत्र ने दण्डवत नमस्कार किया।
इस पर बुद्ध ने कहा, “मैं यह भविष्यवाणी करता हूँ कि तुम आने वाले समय में पमाप्रभा नाम के बुद्ध बनोगे। तुम इस संसार में बहुत से प्राणियों को बचाने और सहीं रास्ता चुनने के लिए आओगे।”
सारीपुत्र को विदा करते समय सभी भिक्षु अपने आपको रोने से नहीं रोक सके। उनको रोते देखकर सारीपुत्र ने उनसे कहा, “बुद्ध का इस धरती पर आना एक बहुत ही दुर्लभ बात होती है। जैसे उदुम्बरा का पुष्प हजारों साल में कभी एक बार आता है। मनुष्य का जीवन मिलना ही बहुत दुर्लभ है। और इससे भी दुर्लभ है बुद्ध के धम्म को पाना। लेकिन, इस जन्म में न केवल हम केवल भिक्षु ही बने, बल्कि हमने स्वयं बुद्ध से सीधे शिक्षा ग्रहण किया। मैं आशा करता हूँ कि आप सभी बड़े परिश्रम से धम्म का अभ्यास करेगें और निर्वाण को प्राप्त करेंगें।”
जब सभी ने यह सुना कि यह सारीपुत्र का अंतिम संदेश है तो सभी बड़े उदास हुए और बोले, “आदरणीय, आप बुद्ध के प्रमुख शिष्य हो। धम्म के प्रचार और प्रसार के लिए आपका संघ में आवश्यकता है। आप अभी क्यों निवार्ण प्राप्त कर रहे हो?
इस पर सारीपुत्र ने उनका समझाया, “उदास होने की आवश्यकता नहीं है। क्या बुद्ध ने यह नहीं बताया कि इस संसार में हर चीजें नश्वर है। मृत्यु जीवन का एक सत्य है। मैं आशा करता हूँ कि तुम सभी जब तक निर्वाण को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक तुम धम्म का खूब अभ्यास करोगे। आगे भी भविष्य में जब–जब लोग अपने को दुःखों से मुक्त करना चाहेगें, वे बुद्ध के बताए हुए मार्ग पर चलेगे। वे अपने दुःखों से मुक्ति पाएगे। उनका अंतिम लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना होगा। साथ ही वे बुद्ध के ज्ञान के मार्ग को आगे बढ़ाएगे।” सारीपुत्र के इस बात पर सभी बहुत प्रभावित हुए। सभी ने सारीपुत्र को विदा किया। सारी पुत्र अपने प्रिय शिष्य कुंती के साथ अपने गाँव लौट आया।
जब सारीपुत्र अपने गाँव पहुँचा तो उसकी माँ ने उसे बहुत समय बाद देखकर खुशी से खूब रोई और परिवार के सभी लोग बड़े प्रसन्न हुए। जब यह बात उन्हें मालूम हुई कि वह गाँव परिनिवार्ण के लिए आया है तो सारे रोने लगे। इस पर सारीपुत्र ने अपनी माँ और अन्य लोगों के समझाया कि वह पहले ही निवार्ण प्राप्त कर चुका है। उसकी यह मृत्यु सामान्य मृत्यु से भिन्न है।
सारीपुत्र का परिनिवार्ण प्राप्त करने की सूचना उस समय के उसके राज्य के राजा, अजातशत्रु के कानों में पड़ी तो वह अपना अंतिम अभिवादन करने पहुँचा। उस समय उसके घर पर आस–पास के जो लोग बुद्ध के धम्म में दीक्षित हुए थे, सभी ने आकर उसे अपना अंतिम अभिवादन किया। सारी पुत्र ने उनको बुद्ध के धम्म मे पकने के लिए कहा ताकि वे निर्वाण को प्राप्त कर लें। उसने अपना अंतिम संदेश दिया और परिनिवार्ण को प्राप्त किया।
सारीपुत्र के परिनिवार्ण के सात दिन बाद उसका अंतिम संस्कार उसका शिष्य कुंती ने किया। शिष्य ने उसके जो अवशेष थे उसे लाकर बुद्ध को दिया। इस पर बुद्ध ने उपदेश दिया और अवशेष को दिखाते हुए कहा, “देखों यह अवशेष बुद्ध के पुत्र का अवशेष की तरह है।”
शुभ–अशुभ
एक गावँ में एक व्यक्ति रहता था। उसका पेशा किसान था। वह एक समृद्ध किसान था। उसके पास बहुत सारे खेत था। उसकी एक जवान बेटी थी। वह कई वर्षो तक उसने उसके लिए योग्य लड़का तलाश किया, पर उसके लिए कोई सुयोग्य वर नहीं मिला। इधर लड़की की उम्र बढ़ती जा रही थी। इसलिए, उसने शहर जा कर उसके लिए लड़का तलाशने का फैसला किया।
एक दिन वह शहर के लिए निकला और वहाँ एक होटल में ठहरा। वह शहर अपनी बेटी को भी साथ लेकर आया था। उसने निश्चय कर रखा था कि इस बार सब काम एक ही साथ निपटाकर घर वापस जाएगा। वह शहर में अपने रिश्तेदारों या जानने वालों से बात–चीत की और अपना शहर आने का उद्देश्य बताया। उसके रिस्तेदारों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ा। उन्होंने कई परिवार के विवाह योग्य लड़कों को दिखाया। उसने बहुत से लड़के देखे, पर उसकी बेटी के लिए कोई उसकी मेल का लड़का नहीं मिल रहा था। पर उसकी कोशिश बेकार नहीं गयी। संयोग से उसे एक अच्छा परिवार मिल ही गया। चूंकि, लड़की साथ में ही थी, इसलिए लड़का का परिवार लड़की को भी देख लिया और शादी की बात आगे बढ़ी। दोनों पक्ष कुछ आवश्यक बातें करने के बाद शादी के लिए राजी हो गये। इस तरह विवाह का संबंध निश्चित हो गया। विवाह निश्चित हो गया। अब सवाल आया कि विवाह का दिन, समय कब रखा जाए। लड़का पक्ष वालों ने अपने पुरोहित को बुलवाया। उससे शादी की शुभ तिथि बारे में पूछा। तब पुरोहित ने अपना पोथी–पतरा अपने झोले से निकाला और गणना करके बताया कि अमुक दिन विवाह होना चाहिए। अमुक दिन विवाह के लिए सबसे शुभ दिन है। दोनों उस दिन पर शादी करने पर सहमत हो गये। लड़की का पिता खुशी–खुशी अपने गाँव चला गया।
किसान अपने गाँव पहुँच कर सबसे पहले अपने पुरोहित को यह खुश खबरी सुनाई। उसने बड़े जोश में पुरोहित को यह खुशखबरी सुनाई कि उसकी बेटी का विवाह निश्चित हो गया है। वह यह भी बताया कि वहाँ के ज्योतिषि ने अमुक तारीख बहुत ही शुभ बताया है। यह सुनकर उस पुरोहित को बहुत बुरा लगा कि विवाह का दिन, तारीख तो पहले से ही निश्चित करके आया और अब मुझसे बस राय लेना चाहता है। फिर उसने कहा, “यह तिथि तो बहुत ही खराब है। यह तिथि तो एकदम अमांगलिक है। यह दोनों के लिए ही अमांगलिक है। इस तिथि में तो विवाह किसी भी कीमत पर नहीं होनी चाहिए।” पिता डर गया और पूछा, “तो कौन सी तिथि सबसे अच्छी रहेगी?” पुरोहित बोला, “बस इस तिथि के दो दिन पहले की तिथि बहुत ही मांगलिक है। बहुत ही शुभ है।” पिता ने भी सोचा– ठीक है क्या फर्क पड़ता है। जो शादी दो दिन बाद होनी थी, वो दो दिन पहले हो जाएगी।
वह पुरोहित के घर से लौटकर आया। उसने वर पक्ष को एक पत्र लिखा कि शादी अमुक दिन नहीं, अमुक दिन होगी। उसने पत्र को पोस्ट कर दिया। उन दिनों पत्र व्यवहार की इतनी दुरुस्त सुविधा नहीं थी। इसलिए, वह पत्र समय से नहीं पहुँचा। लड़की का बाप सूचना भिजवाकर अपनी तरफ से निश्चिंत हो गया।
शादी के दिन लड़की के घर पर तैयारियाँ हो गयी थी। बस बरात को इंतजार था। समय बीता जा रहा था। लड़की के बाप ने देखा- वर पक्ष के लोग आये नहीं, नहीं कोई सूचना है। उसने लगा कि उसका मन पलट गया है। लड़की के पिता को तो अपनी लड़की का विवाह उसी दिन के शुभ मुहुर्त में करना है। क्योंकि ज्योतिषि ने कहा था कि यही दिन उसके विवाह के लिए सबसे उत्तम है। जब विवाह के दिन लड़के वाले नहीं आये तो अपने किसी पास के गाँव के किसी लड़के को ढूढ़कर अपनी लड़की का विवाह कर दिया।
उधर दो दिन बाद शहर से वर पक्ष पूरे गाजे–बाजे के साथ बारात लेकर लड़की के घर पहुँचा। वहाँ पहुँचकर पता चला कि उस लड़की का विवाह तो दो दिन पहले किसी दूसरे लड़के से हो चुका है। इस पर लड़के का पिता बहुत चिल्लाया और बोला, “मैं पुलिस थाने में केस करुँगा। तूने मुझे धोखा दिया है।” इस पर लड़की का बाप हाथ जोड़कर बोला, “हमने तो शादी की नयी तिथि पत्र से भेजी थी। लगता है आपको मिली नहीं। अब इसमे कुछ नहीं कर सकते। अब तो लड़की दूसरी की पत्नि बन चुकी है। इसमे कुछ नहीं किया जा सकता।” इस पर लड़का का पिता बहुत ही अपमानित महशूस किया और दुःखी होकर गाजे–बाजे के साथ घर लौट गया।
आपने देखा होगा कि आज भी सब बहुत से अच्छे–अच्छे लोग, ज्योतिषियों के कहने पर ही मंगल घड़ी में ही विवाह लोग करते है; पर वे विवाह सारे सफल नहीं होते है। इसलिए, उचित समय जो दोनों के लिए अनुकूल हो उसी समय विवाह करना चाहिए। इसलिए, बुद्ध कहा, “तुम्हारा मंगल और अमंगल इन ग्रह नक्षत्रतों की वजह से नहीं होता। बल्कि, मंगल और अमंगल कर्मो की वजह से होता है। कर्म अच्छे हैं तो उसके परिणाम अच्छा ही होगा। उसको अच्छा आने से कोई रोक नहीं सकता। ठीक इसी प्रकार अगर, कर्म अकुशल है तो उनके परिणाम अमांगलिक ही आयेगे। इसको भी कोई रोक नहीं सकता।”
कभी–कभी ऐसा होता है कि किसी संयोग से कोई अशुभ कहे या बुरा हुआ या होता है तो इसमे घबराना नहीं चाहिए। उसका सामना करना चाहिए। उसकी वजह से वर्तमान को बिगड़ने नहीं देना चाहिए।
गुरु गोबिंद सिंह
भारत से सम्मयक धम्म और संस्कृति को नष्ट करने के बाद एक ऐसी संस्कृति और धर्म का जन्म हुआ जिसने लागों को ऊँच–नीच जातियों में विभातिज कर दिया। समाज में छुआ–छूत की और भेद–भाव की एक गहरी खाई खींच दी। समाज कमजोर हो गया। जब समाज कमजोर हो गया तो देश कमजोर हो गया। जब देश कमजोर हो गया तो विदेशियों का आक्रमण बढ़ गया। कोई भी मुट्ठी भर आक्रमणकारी आता और भारत के किसी भी राजा को हरा देता और यहाँ की जमीनों पर कब्जा कर लेता। यहाँ के लोगों को गुलाम बना दिया जाता। लोगों पर अत्याचार होता। धर्म ने इस भारत के समाज को इतना बाँट दिया था कि जब आक्रमकारी आते तो उनका मुकाबला करने के लिए जनता नहीं होती। उससे लड़ने के लिए भी किसी विशेष कुल के लोगों पर निर्भर रहना पड़ता।
बुद्ध धम्म के पतन के बाद यहाँ पर कोई भी ऐसा विश्वविद्यालय नहीं बना ताकि लोग शिक्षित होकर एक अच्छा समाज बनाए। जो विश्वविद्यालय या शिक्षण संस्थान थे उसको नष्ट कर दिया गया या बाहरी आक्रमणकारियों से साजिश कर उसे नष्ट करवा दिया गया। उसमें से एक उदाहरण एक नालंदा विश्वविद्यालय का है। आपको सोचने वाली बात है कि किसको ज्ञान से नफरत थी। कौन चाहता था कि लोग शिक्षित न हो। मुहम्मद बख्तियार खिलजी तो एक आक्रमणकरी था। उसे तो यहाँ के सभी पंथों की धर्म पुस्तकों का नष्ट कर देना चाहिए था। उस विहार में नहीं कोई धन दौलत होती थी, नहीं कोई लूटने का कोई माल। उसको उन बुद्धिष्ठ भिक्षुओं से भला क्या दुश्मनी हो सकती है? नहीं किसी बुद्धिष्ठ ने उसके राज्य में आक्रमण किया, नहीं उसका कुछ लिया। उसने हजारों भिक्षुओं का कत्ल किया और विश्वविद्यालय में आग लगा दी। लोग कहते हैं कि वह विश्वविद्यालय कई महीनों जलता रहा। पर भारत के उस समय के किसी राजा ने उसे बचाने का प्रयास किया हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। जब आप भारत के उस अंधरकरा युग की विचार करेगे तो आप को कुछ चीजें सोचने पर मजबूर कर देगी जो आपने कभी पढ़ी ही नहीं होगी, नहीं उसे वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया होगा।
हम आगे इस बात की चर्चा जारी रखते है कि जब बुद्ध धम्म के भारत के समाप्ति के बाद, यहाँ पर लोगों को पढ़ने पर पाबंदी लगायी। और ऐसा न करने पर उन्हें तरह–तरह के यातनाएं दी गयी। आप जब इतिहास से पन्नों को एक वैज्ञानिक की तरह खंगाले तो पाएगे कि जब तक भारत में बुद्ध की शिक्षा थी, तब तक किसी विदेशी को भारत के किसी भू–भाग पर कब्जा करने का प्रमाण नहीं मिलता। आक्रमण पहले भी होते थे, पर लोगों में एकता और जाति, भेद, अंधविश्वास और पाखण्ड नहीं होने के कारण हमारे पास मजबूत समाज और सेनाएं थी, जो बाहरी आक्रणों का डटकर मुकाबला करती थी। समानता और बराबरी का हक था। ऊँच–नीच और जाति–पाति की व्यवस्था नहीं थी। जिससे समाज संगठित रहता था और जब भी कोई आक्रमण हुआ उसका डटकर मुकाबला हुआ।
कुछ आक्रमणकारी आये भी तो इस भारत की संस्कृति से इतना प्रभावित हुए कि वे इसी की सम्यक संस्कृति को स्वीकार कर उसे आगे बढ़ाया। आप राजा कनिष्क आदि का उदाहरण ले सकते है। सिकंदर के आक्रमण को आक्रण हो या उसके बाद के जितने भी विदेशी आक्रमण हुआ लगभग सभी विफल होने के प्रमाण मिलते है। अंतिम बुद्धिष्ठ राजा हर्षवर्धन के शासन काल के बाद भारत का अंधकर युग प्रारम्भ हो गया। कुछ ही सदियों में नतीजा यह निकला कि समाज पूरी तरह खोखला हो गया। समाज जातियों में बँट गया था। क्योंकि समाज में उस समय एक ऐसे धर्म ने कब्जा कर रखा था जो लोगों में भेद-भाव पैदा करता था। इससे समाज बहुत कमजोर हो गया। उसके बाद न जाने कितने विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद बिन कासिम, गजनी, गोरी और न जाने कितने मुट्ठी भर अपने साथ सैनिक लाते और भारत पर कब्जा कर लेते। धर्म का बिल्कुल अधयपतन हो चला था। मानव–मानव में भेद हो गया था। सारा अधिकार पुरोहित वर्ग के पास ही हो गया। हर काम उसके कहने पर होता। अंध विश्वास और पाखण्ड ने अपना जड़ जमा लिया था। उस अंधकारमय भारत में एक ऐसे संत का जम्न होता है जिनकी शिक्षाएं मानव–मानव में भेद नहीं उत्पन्न करता। उनकी शिक्षा में जाति–पाति, ऊँच–नीच और भेद भाव का कोई स्थान नहीं। उसकी शिक्षा में वर्ण व्यवस्था का कोई स्थान नहीं था। उस संत का नाम है संत शिरोमणि गुरुनानक। उन्होंने सत्य, प्रेम और ज्ञान की एक ऐसी ज्योति जलाई जिससे एक नये समाज का निमार्ण हुआ। जिसे हम सिक्ख परंपरा कहते है। उन्होंने बुराई से मुकाबला करने का उपदेश दिया और लोगों सामर्थवान बनाया। लोगों को उँच–नीच के बंधनो से मुक्त कराया। गुरुनानक जी सिक्ख परम्परा के पहले गुरु थे।
परिवर्तन समय का नियम है और जो समाज अपने को आधुनिक ज्ञान से युक्त नहीं होता है, उसका पतन हो जाता है। इसी तरह समाज को सुसंगठित और सार्मथवान बनाने के लिए समता पर अधारित गुरुओं की परम्परा में नौवें गुरु गुरुतेग बहादुर के घर एक पुत्र उत्पन्न हुआ। बालक के बचपन का नाम गोविंद राय था जिसका नाम आगे चलकर गुरु गोविंद सिंह पड़ा। यह गुरु परंपरा के दसवें गुरु थे।
गुरु गाविंद सिंह का जन्म दिसम्बर २२,१६६६ मे वर्तमान बिहार राज्य के पटना साहिब में हुआ। जब वे नौ साल के थे, तभी उनकी पिता को इस्लाम धर्म नहीं स्वीकारने के कारण कत्ल कर दिया गया। इस तरह वह शहीद हो गये। नवम्बर २४, १६७५ मे गुरू गोविंद सिंह जी को गुरु की पदवी से नवाजा गया।
गुरुगोविंद सिंह एक फिलॉसफर, एक कवि, और एक महान शूरवीर योद्धा थे। उन्होंने समय के साथ धर्म के कुछ नियमों परिवर्तन किया जिससे कि उस समय का भारत ऊँच–नीच, जाति–पाति के बँटा समाज एकत्र होकर एक मजबूत समाज का निर्माण हो सके। इस पंरम्परा के सभी गुरु गृहस्थ थे, पर सभी संत है। किसी ने अन्याय के और अंधविश्वास के आगे घुटने नहीं टेके, बल्कि उनका मुकाबला किया। जाति–पाति का भेद–भाव समाज में न रहे उन्होंने बहुत बड़ा काम किया। जात-पाति, ऊँच-नीच जो कि समाज के लिए हानिकारक है, जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म को भ्रष्ठ करता है को दूर किया। अपने नये पंथ में उन्हें ऐसे लोगों का शामिल किया जो समानता पर विश्वास करते थे। उनको कैसे लोग चाहिए हम एक उदाहरण से समझेगे। कबीरदास की एक बाणी है–
कबीरा खड़ा बाजार में लिए कुल्हाड़ा हाथ।
शीश उतारे भूई धरे वो चले हमारे साथ।।
इसका मतलब यह कि हमारे साथ वही चल सकता है जो अपना सिर उतार कर रख दे। जो अपना अहंकार समाप्त कर दे। वही मेरा साथी हो सकता है।
इसी समानता पर अधारित पंथ के गुरु थे दसवें ‘गुरु गोविंद सिंह’। उन्होंने कहा, “हमें वैसे ही लोग चाहिए जो अपना सिर उतार कर चल सके। भले ही वे थोड़े से ही लोग हो, पर वेसे लोग चाहिए।”
सन्१६९९ में आनंदपुर मे वैशाखी के पर्व पर एक मेले में उन्होंने कहा, “धर्म की रक्षा के लिए हमे एक की बलि चढ़ानी है। हमे अत्याचार से लड़ने के लिए बलि चढ़ानी है। इस सभा में जो कोई अपनी बलि चढ़ने के लिए तैयार है? कौन है जो धर्म की रक्षा के लिए, अपनी स्वेछा से बलि देने के लिए तैयार है?” उनकी बात से पहले एक व्यक्ति आता है। उसे पकड़कर गुरू एक पीछे तंबू में ले जाते है। कुछ देर बाद खून से रंगी तलवार लेकर गुरू पुनः भीड़ के सामने आते है और कहते है कि, “सिर्फ एक की बलि पर्याप्त नहीं है। और ज्यादा लोग मुझे चाहिए जो अपनी बलि देने के लिए स्वेछा से तैयार है, वे आगे आये।” फिर दूसरा आदमी अपने को बलि देने के लिए पेश करता है। इस तरह करके पाँच लोगों को तंबू के पीछे ले जाते हैं और हर बार खून सनी तलवार के साथ बाहर आते है। जबकि हकीकत यह है कि उन्होंने कोई बलि नहीं चढ़ाई। उन्होंने लोगों का टेस्ट किया कि लोग सत्य प्रेम और बराबरी के धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बलि देने के लिए तैयार हैं कि नहीं। जब उनको ये पाँच लोग मिल गये तो उन्हें ‘पंच प्यारे’ कहा। शिष्यों ने गुरु को पूजा और गुरु ने शिष्यों को पूजा। गुरू पाँचों को नमस्कार करते है और वे पाँचों गुरू को नमस्कार करते हैं। गुरु उन्हें अमृत चखाता है और शिष्य गुरु को अमृत चखाते हैं। उन पाँचों शिष्यों के नाम है– दया सिंह, धरम सिंह, हिम्मत सिंह, मोहकाम सिंह और मोहकाम सिंह। ये पहले ‘खालसा पंथ’ के सदस्य बने। ये उस समय के अंधकार युग के धर्म की इस व्यस्था में नीची जाति से थे। गुरु ने कहा, “अब ये सारे पूज्य है। सभी लोग उनकी पूजा करेंगे।” उन्होंने जाति–पाति के भेद–भाव को दूर करने के लिए प्रयत्न किया। उन्होंने कहा–
गुरु घर जन्म तिहारो होई।
पिछले जाति वरन सब खोई।
चार वरन के एके भाई,
और धर्म खालसा की पदवी पायी।।
अर्थात पिछली जो भी जाति थी और वर्ण व्यवस्था में वर्ण था उसे सब तुम खो दिये हो। अब तुम्हारा एक नया जन्म हुआ है। अब वे सब खोकर अब तो खालसा हो गये। अब वे नहीं ब्राह्मन है, नहीं क्षत्रिय है, नहीं वेश्य है, नहीं शूद्र है। सब ‘खालसा’ हो गये। पवित्र हो गये। पवित्र रहने पर भेद नहीं रहता। उन्होंने खूब अच्छी तरह से समझाया कि अगर धर्म के रास्ते पर चलना है तो मानस की एक ही जात है। जैसे घोड़ों की अपनी एक जाति है। गधों की एक जाति है, बकरियों की एक अपनी जाति है, सांप की एक जाति है। पंछी की अपनी एक जाति है। उसमे कोई ऊँच नीच नहीं होता। उसी तरह मनुष्य की अपनी एक जाति है। सबके दो हाथ दो पैर, सभी खाना, पीना और सारे भौतिक काम एक जैसे करते है तो मनुष्य–मनुष्य में भेद नहीं। सभी बराबर है। जो भीतर से शुद्ध हो गया वह खालसा हो गया। केवल, भेष बदल लेने से कोई खालसा नहीं हो जाता। उन्होंने एक भेष दिया, पर उसका एक बौद्धिक कारण था। किसी आडम्बर और पाखंड के लिए नहीं। कोई पागलपंथी में नहीं दिया, पर उस समय की जरुरत थी। मानव–मानव में भेदभाव न रहे और समाज एकजुट होकर धार्मिक अत्याचार का मुकाबला कर सके। इसके इसके लिए उन्होंने नयें पंथ खालसा में जो नियम दिए वे निम्न हैं–
केश
कंधा
कटार
कछा
कड़ा
इस नयी भेष-भूषा का अर्थ समझना चाहिए।
केश– उन्होंने नियम बनाया कि खालसा के लोग अपने बाल नहीं काँटेगे। ध्यान रहे, ये सारे नियम इसलिए बनाए कि उनकी अलग पहचान हो। जिसको लोग दूर ही देख का पहचान ले। किसी नया संप्रदाय स्थापित करने के लिए नहीं। किसी अंधविश्वास या पाखण्ड के लिए नहीं।
पर, जब आदमी सिर के बाल बढ़ाता है तो कभी–कभी पागलपन आ सकता है। उसके मन में खयाल आता है कि अब ऐसा करे कि उन बालों को राख से मले और ऐसी भेष भूषा बना ले ताकि लोग उसे बड़ा सन्यासी जाने और उसे नमस्कार करे! ऐसा करने से न जाने क्या मिल जाएगा! न जाने क्या हो जाएगा! यह एक तरह का पागलपन है।
गुरुगोबिद सिंह मे इसलिए, खालसा के लोगों को कंघा दिया ताकि वे अपने बालों को अच्छी तरह सँवारे और साफ सुथरा रखे। ऐसा नहीं कि उसमे राख पोत ले और बाहर जटा और भीतर जटा। जटा ही जटा और जटिल हो गये।
गुरु ने उन्हे कंघी देकर जटिल नहीं बनाया। इसलिए, उनके शिष्य जटिल नहीं हुए। बल्कि वे भीतर से बिल्कुल स्वस्थ है, निर्मल है, सरल है। इसलिए कंघा दिया।
गुरु ने तीसरा ककार, कटार दिया। उसका भी कारण है। कटार इसलिए दिया कि जहाँ कहीं अत्याचार हो रहा हो या अनाचार या दुराचार हो रहा हो तो उसका मुकाबला कैसे करे? अगर दुराचारी और अत्याचारी बलवान है या हथियाद बंद है तो उसका समाना कैसे करे? इसलिए, तलवार देकर बलवान बनाया। और कहा– कोई आक्रमणकर्ता है, तो उसका सामना करना है। कोई अत्याचार करता है तो उसका सामना करना है। कोई अनाचार कर रहा हो तो उसका सामना करना है। बलवान को बल से ही हराना होगा।
जब हाथ में तलवार आती है तो पागलपन आता है। आदमी जब बलवान हो जाता है और जब शक्तिशाली हो जाता है तो वह शक्ति के मारे घमण्डी हो जाता है। होश खो बैठता है। वह सोचता है कि मुझमें वो शक्ति है जो मैं चाहूँ करुँ। तो क्या करता है– अबलाओं पर अत्याचार करता है। अपनी वासना पूर्ति करने के लिए इधर–उधर अनाचार करता फिरता है। बलात्कार करता है। वह समझता है कि ताकत तो उसकी के हाथ में है। मैं बलवान हूँ। मुझे कोई क्या कहेगा या कौन रोक सता है?
गुरू इस बात को जानते थे। ऐसा पागल कहीं न करने लगे इसलिए उन्हें कच्छा दिया। यह कच्छा इस बात का प्रतीक है कि हम काम संबंधी विषयों में खूब संयम बरतेगें। यह बात हम गुरु गोविंद सिंह की एक दोहा से समझेगें–
पर नारी की सेज,
भूल सपने हुन न जाओ।
हमें संयमित जीवन जीना है। सम्म्यक जीवन जीना है। कहीं अनाचार में खुद न लग जाए।
लेकिन, जब वह खुद अनाचार करने लगे, तब क्या होगा? जब रक्षक ही भक्षक बन जाए, तब क्या होगा? बाढ़ ही खेत को खाने लगे तो रक्षा कौन करेगा?
गुरू गोविंद सिंह जी इस बात को भी अच्छी तरह जानते थे। इसलिए उन्होंने एक हाथ में एक कड़ा दिया। जब भी वह तलवार उठाएगा तो उसे हर बार कड़ा दिखाई देगा। वह उसे याद दिलाएगा कि मैं किस पर तलवार उठा रहा हूँ? कोई अबला पर तो नहीं उठा रहा? किसी निरपराध पर तो नहीं उठा रहा? किसी कमजोर और लाचार पर तो नहीं उठा रहा? किसी निःशस्त्र व्यक्ति पर तो नहीं उठा रहा। किस पर उठा रहा है, उसे होश रहे। तलवार उसी पर उठानी है जो उस पर आक्रमण करता हो। जो अन्य लोगों की हानि करता है। तलवार किसी निरपराध पर नहीं उठानी है। ऐसी बात का खयाल रहे।
गुरु गोविंद सिंह की कुछ विवास्पद रचनाओं के छोड़ दिया जाय तो उनके द्वारा समाज को जाति–पाति से रहित उस समय की आवश्यता के अनुसार सशक्त बनाने के लिए किये गये बदलाव सही थे, जो कि भारत के मूल परम्परा पर अधारित है।
इस तरह हम देखते है कि वर्ण व्यस्था से अलग जो भी धर्म भारत में हुए है या उसके महापुरुष हुए है उन्होंने जाति–पाति से रहित, धुआ–छूत से रहित, पाखण्ड और पुरोहितवाद से रहित, समानता के अधार पर धर्म को आगे बढ़ाया। इन महापुरुषों में, बुद्ध, गुरुनानक देव, और उसके बाद सभी गुरु और कबीर हैं। उसके बात आधुनिक भारत में बाबा साहब अंबेडकर हैं। ऐसे महापुरुषों की वजह से भारत का नाम दुनियाँ के हर देशों में जाना जाता है। यही लोग भारत का गौरव हैं।
।।समाप्त।।
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